छूटते पदचिन्हों के साथ एक दौर इतिहास होता जा रहा है...👣
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16/04/2017,मंगलवार,बेर सराय
दिन भर आईआईएमसी से लेकर जेएनयू तक भटकते रहने के बाद रात में यहां भी एक संसद लगती।हंसी-ठहाके,गीत-ग़ज़ल-कविता,राजनीति-समाजनीति विमर्श हर तरह के रंगों से इस महफ़िल की रंगोली बनती थी।लगभग साल भर चली इस प्रक्रिया में एक दूसरे के बारे में बात करना,उसके उद्देश्यों के बारे में पूछना उसका इतिहास जानना,आने वाले दिनों के लिए क्या योजनाएं हैं,क्या करना चाहते हैं इन सभी चीजों से सम्बंधित बातें करना इन रतजगों का विषय हुआ करती थीं।तमाम तात्कालिक राजनैतिक और सामाजिक मुद्दे सुलझते थे।खूब बातें होती थीं।चूंकि हममें से अधिकांश लोग रचनाकार थे तो कभी कभार रात 2 बजे ही कवि सम्मेलन भी आयोजित हो जाया करता था। Anurag भाई सर्वाधिक मांग वाले कवि थे।इसके बाद आर्य भारत की आग उगलती कविताएं सुनी जाती थीं।
आज हमने भी सारा सामान समेट लिया है इन सभी यादों के साथ।बेर सराय में रुकने की अब कोई सम्भावना नहीं है।यहां रुकने का अब कोई मतलब और अधिकार भी नहीं है।जीवन के सर्वाधिक अविस्मरणीय क्षणों का इतिहास समेटे इस शानदार वातावरण में रहने के कारण भी तो खत्म होते जा रहे हैं।कर्मभूमि भी अब नॉएडा सेक्टर 10 की दौड़ती भागती ज़िन्दगियों के बीचोबीच मिल गयी है।वहां कोई ठहराव नहीं होगा।वहाँ कहीं एकांत नहीं होगा,वहां बेर सराय की तरह स्वतंत्रता रात और दिन की समयसीमा से आज़ाद नहीं होगी।वहां रतजगे न हो पाएंगे शायद!वहां महफिलें न लग पाएंगी शायद।
ये सारी चीज़ें मन को दुखी कर रही हैं।मकान नंबर 14 के छठवीं मन्ज़िल के रूम नम्बर 604 में लगने वाली महफ़िल सबसे ज्यादा याद आने वाली है। Jitendra उर्फ़ जीतू की चाय और शिकंजी शायद ही भूल पाएं और वो हमारे अपने 'संसद' की सीढ़ियां जिन पर बैठकर आईआईएमसी बैडमिंटन कोर्ट की थकान उतारा करते थे,जिन पर अपनी समस्त निराशाओं परेशानियों को बगल में बिठाकर उनसे बात करने की कोशिश करते थे वे सब अब पीछे छूट रही हैं।एक बार फिर से किसी रूम नम्बर 604 के कमरे में कवियों का जमघट हो,इसकी संभावना भी अब हमसे हाथ छुड़ा रही है।
वक़्त की धारा ने सब कुछ तितर-बितर कर दिया है। Prashant मातुल और Vivek नॉएडा में तो हैं लेकिन फिर भी दूर हैं।ये दूरी सिर्फ किलोमीटर में नहीं है अब,इस दूरी के साथ समय की विमा भी जुड़ गई है।अनुराग और अभिषेक फिलहाल तो यहीं हैं लेकिन आगे इनका भी ठिकाना वसंतकुंज हो जाय शायद। Aman Brar चंडीगढ़ चला गया, Aman और Gaurav का कोई भरोसा नहीं कहाँ रहे। Neeraj राजस्थान के प्रवास पर है। आर्य भारत तो गांधी फ़ेलोशिप वाले हो गए।हाँ,समरवा तो कहीं भी रहे,उससे दूरी महसूस नहीं होगी,उसका पीछा तो ज़िन्दगी भर नहीं छोड़ना है।अब जा रहे हैं तो हर रोज की तरह अब कोई उम्मीद नहीं है कि रात को तो सब मिलेंगे ही,और सब लोग न सही अनुराग,अभिषेक,समर, Rohin तो ज़रूर।अब वो उम्मीद भी नहीं रहेगी।पता नहीं कितना याद आओगे तुम सब!अभी तो कोई अंदाज़ा नहीं।यहां रहते हुए खाली और अकेले रहना लगभग भूल ही गये थे।
ये बेर सराय की जमघट थी।अधिकांश ने अपने ठिकाने ढूंढ लिए और छोड़ दिया 2016-17 के कालखण्ड के उस बेर सराय को अकेला,जो हम सबकी हर महफ़िल का साझेदार हुआ करता था।सब कुछ अब पीछे छूट रहा है।छूटते पदचिन्हों के साथ एक दौर इतिहास होता जा रहा है।ऐसा लग रहा है एक संस्कृति से अलगाव हो रहा है।एक सभ्यता पीछे छूट रही है।भविष्य भी तो रोंआ गिराए ही हमारा स्वागत कर रहा है।
ख़ैर,अब इतने बड़े त्याग की बुनियाद पर कुछ अच्छा ही होगा,यही उम्मीद है।सब खुश रहें,सब सफल होवें,सबका भला हो।
अलविदा बेर सराय
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