गली में घुसते ही लोग बाइक पर बैठकर, पैदल ही या अन्य वाहनों से तेजी से भागे जा रहे थे। मामला क्या था अभी समझ नहीं आ रहा था। हम गली में अपने घर की और बढ़ रहे हैं। अभी किसी भी तरह की असामान्य स्थिति का अंदाज़ा नहीं है। मोड़ के बाद सीधे घर तक जाने वाली ऋजु सड़क पर बढ़ते-बढ़ते अचानक लगा कि सब-कुछ सामान्य नहीं है। यहाँ जरूर कुछ हुआ है। अचानक अनजान डर दिल में समाया जा रहा है। सोचे, जल्द से जल्द घर पहुँच जाएं।
घर के ठीक सामने के मंदिर का लैंडमार्क मिलते ही रुक गए और मुड़कर एक नजर घर की ओर देखा। जैसे ही नज़र ऊपर गयी तो चौंक गए! अर्रे! यह क्या! वहां तो कुछ नहीं था। घर की दीवारों पर छत नहीं थी। दीवार ढहे पड़े थे। बड़ा सा काला गेट औंधे मुंह 'भूतपूर्व' मकान के भीतर गिरा पड़ा था। उखड़े ईंटों वाली दीवारें खण्डहर के भयानक स्वरुप को भी मात कर रही थीं।
यह क्या हुआ? डर पूरी तरह से हावी हो गया। घर कहाँ गया? मेरा सारा सामान, किताबों से भरा मेरा बैग जिसे कुछ दिन पहले कमरा बदलते वक्त मैंने पैक किया था और अभी उनमें से किताबें बाहर नहीं निकाली थीं। दिल्ली आने के बाद से मेरी सारी जमा-पूंजी वही तो थी न। मैं भागकर ऊपर पहुंचा। कुछ भी तो नहीं था वहां। सीढ़ियां भी क्षतिग्रस्त।
मैं नीचे उतरा तो कुछ लोग खून से लथपथ एक अधेड़ व्यक्ति को बाइक से दौड़ा रहे थे। उनके हाथ में कोई धारदार हथियार था। मामला समझते देर न लगी। यहाँ दंगा हुआ है। कत्लेआम मचा है। मेरा घर दंगाइयों ने ही ध्वस्त किया है। मेरी किताबें इन्हीं लोगों ने लूटी होंगी। लेकिन इन्हें किताबों से क्या मतलब। वह तो छोड़ देते। बाकी सब ले जाते। तभी अचानक खुद पर भी हमला होने की संभावनाओं का ख्याल आया। कदम अपने आप तेज हो गए। जल्द से जल्द हम गली से बाहर आ जाना चाहते थे। लगता, पीछे कोई हथियार के साथ मेरी ओर बढ़ा आ रहा है। मारे डर के पीछे भी नहीं देखा जा रहा। तेजी से चलते हुए हम मुहल्ला छोड़ चुके थे।
दृश्य अचानक बदल गया। जैसे फिल्मों में एक दृश्य के बाद दूसरा दृश्य आ जाता है न वैसे ही। अब मैं दिल्ली की किसी ऐतिहासिक इमारत के सामने था। इमारत के बारे में ठीक से याद नहीं। शायद लाल किला या क़ुतुब मीनार। मैं वहां किनारे एक जगह सहमा हुआ बैठा हूँ। चेहरे पर गहरी शिकन है। मुझे समझ नहीं आ रहा क्या करूँ। इतनी किताबें फिर कैसे इकट्ठा करूंगा। घर! घर भी तो उजड़ गया था। कहाँ जाऊं? कहाँ रहूँ? कितना अच्छा था न सब, सामान्य। कुछ भी तो नहीं था सुबह तक। ये दंगे क्यों हो गए। न होते तो मैं आज अपनी किताबों को अलमारी में करीने से सजा रहा होता। या थका हुआ महसूस करता तो यूं ही कोई एक किताब बैग से निकाल पढ़ रहा होता। लेकिन अब तो न बैग है न किताबें न घर। हां, थकन थी और बहुत ज्यादा थी।
एक किनारे किसी बेंचनुमा कुर्सी पर बैठ घबराया हुआ चारों तरफ लोगों के चेहरे देख रहा था। किसी के चेहरे पर दंगे का दुःख नहीं था, डर नहीं था। शायद किसी को पता ही न हो कि उन्हीं के शहर के एक मोहल्ले में दंगा हुआ है। न जाने कितने लोग बरबाद हो चुके हैं। उन बर्बाद लोगों में से एक मैं भी हूँ। उन्हें क्या पता कि जीवन और मृत्यु के बीच सिर्फ एक दौड़ भर का भी फासला हो सकता है!
फिर मैं सोचने लगा कि क्या होता अगर मैं तेज न भागता। अगर पीछे से कोई बाइक सवार मुझ पर पेट्रोल बम फेंक जाता। कोई उन्मादी दंगाई किसी धारदार हथियार से मेरे पीठ से छाती तक एक गहरा आर-पार सुराख़ कर देता! कोई मेरी खोपड़ी पर हॉकी की मजबूत लकड़ी से तेज प्रहार कर अट्टाहस करता हुआ आगे निकल जाता! क्या होता, यह सोचकर मैं एक बार फिर सहम गया।
मेरे ख्याल में वो सारे दंगे एक बार को गुजर गए जिनके बारे में अख़बार में पढ़ते मैंने पन्ने पलट दिए थे। जिनके बारे में बात करते हुए मैं अपनी संस्कृति पर किसी के गलत हस्तक्षेप की सजा के बतौर किसी एक पक्ष के दंगाइयों को सही ठहराने लगता। दंगों को सामान्य दृष्टि में लेने की अपनी आदत पर आज आत्मग्लानि महसूस हो रही थी। क्योंकि जब मैं गली से बाहर भाग रहा था तब मुझे महसूस हो रहा था कि पीछे से वार करने वाले की पहचान करने और उसे अपनी पहचान बताने का मेरे पास बिल्कुल वक़्त नहीं था। मुझे ऐसा एक पल भी नहीं लगा कि पीछे वाले को अगर पता लगे कि मैं उन्हीं के धर्म का हूँ तो वो मुझे छोड़ देंगे। कि उनके पास भी ये पता करने का वक़्त नहीं था।
मेरे चेहरे पर डर के साथ अब सुकून का भाव था। परम सुकून। सुकून के इसी भाव के साथ मैं पास ही एक बड़े से स्टॉल के पास लगी हल्की भीड़ की ओर बढ़ने लगा। लोग स्टॉल पर रखी किताबें देख रहे हैं। उलट-पुलट रहे हैं। एक करीब 12-13 साल का लड़का है। गन्दी सी सफ़ेद शर्ट पहने गहरे रंग का वह लड़का बड़े ध्यान से लोगों को देख रहा है। उनकी बातों को सुनने की कोशिश कर रहा है। मैं नजदीक पहुंचा तो देखा पुरानी किताबें थीं। सस्ते दामों पर। नयी शुरुआत करने की सूझी। सोचा यहीं से कुछ किताबें खरीदकर फिर से संग्रहण की कोशिश शुरू करता हूँ।
मैं स्टॉल के नज़दीक पहुंचा। सामने 'कितने पाकिस्तान' रखी थी। उसके पीछे उस पर अखबार का लगाया हुआ कवर चिपका हुआ था। कवर पर नजर पड़ी। यह तो जनसत्ता अख़बार है। ठीक से देखा। मेरा शक़ सही निकला। मेरी किताब थी। नहीं, मेरी नहीं थी। दोस्त की थी, जिसे मैंने हड़प लिया था। पीछे कवर पर मोबाइल नम्बर लिखा था। मैंने ही लिखा था। मेरी लिखावट थी। मेरी किताब यहाँ कैसे? तब तो और भी होंगी।
इधर-उधर तेजी से नज़रें दौड़ने लगीं। अचानक 'गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान' दिखी। फिर 'वे दिन', 'परिंदे', 'चाँद का मुंह टेढ़ा है', 'निशा निमंत्रण', 'उर्वशी', 'कश्मीरनामा'। एक-एक कर मेरी सारी किताबें। मैंने झट से उन किताबों को इकठ्ठा किया और रो पड़ा। बहुत देर तक रोता रहा। चिल्ला-चिल्लाकर। वैसे ही जैसे किसी भयानक दंगे से बचने के बाद कोई अपना ज़िंदा दिख जाए तो आंसुओं के बांध फूट जाते हैं न, वैसे ही। खूब रोया। रोते-रोते मैंने उस सफ़ेद शर्ट वाले को किताबें दिखाकर इशारा किया। शायद पूछ रहा था - 'भाई! ये किताबें तो मेरी हैं, तुम्हें कहाँ से मिलीं?'
वह कुछ बोलता कि नींद खुल गयी। सपने का समापन हो चुका था। दिल पर हाथ रखा तो धड़कनें अभी तक असामान्य थीं। भयानक सुकून मिला कि मैं मेरी किताबों के साथ सुरक्षित हूँ। कोई दंगा नहीं हुआ था। कोई मार-काट नहीं हुई थी। सपना था। भयानक सपना। क्यों था, कैसे था, नहीं पता। मैंने एक बार फिर सारे दृश्यों को मनोमन दुहराया। सच में भयानक था। फिर आदतन इस सपने को भी कल्पना से आगे बढ़ाने की इच्छा हुई। कि इसे कोई दिलचस्प अंत दे दें लेकिन हिम्मत नहीं हुई। सोचा, दोस्त को फोन कर बता दें। सुबह का सपना है कहीं सच न हो जाए, लेकिन फोन नहीं लगा तो इरादा छोड़ दिया।
मैं अब उस सफ़ेद शर्ट वाले बच्चे के बारे में सोच रहा हूँ कि उसने ये किताबें कहाँ से इकट्ठी की होंगी! कहीं दंगे में उसका घर-परिवार भी तो होम नहीं हो चुका था? या फिर कहीं वो दंगाइयों की ओर से तो नहीं था? नहीं, ये कैसे हो सकता है! इतना छोटा दंगाई! इम्पॉसिबल! जरूर दंगाइयों ने ये किताबें सड़कों पर बिखेर दी होंगी। आखिर उन्हें तो खून बहाना था। ये किताबें उनके रास्ते की बाधा हो सकती थीं। ये बच्चा किसी कबाड़ी का बच्चा होगा जो कूड़े के ढेर में अपनी सांस खोजता है। सड़क पर बिखरे इन किताबों को उसीने इकठ्ठा किया होगा। ये स्टॉल उन्हीं दंगों में लूटी गयी किताबों की रही होगी।
तमाम तार्किक कसौटियों पर अनफिट यह कहानी सच में एक सपना है। सपना जो मैंने पिछले शनिवार को तकरीबन 8 या साढ़े 8 बजे सुबह देखा था। एक्जैक्ट दृश्यों को उकेरने में सफलता नहीं मिली लेकिन सपना बेहद भयावह था। दंगे का एक सैम्पल सरीखा। किरदार शायद केवल सपने की उपज नहीं होंगे। दंगे तो ऐसे ही होते होंगे न! मकान तो ऐसे ही लूटे जाते होंगे! किताबें, छत, परिवार सब। दंगे की आँखें कहाँ होती हैं। कहाँ देखता है वह कि सामने कौन है! सामने क्या है! सिर्फ हाथ होते हैं, जिनसे वह घर जलाते हैं, लूटते हैं, हत्याएं करते हैं। हां, पैर भी होते हैं जिनसे वह आंधी की तरह आते हैं और सब कुछ तहस-नहस कर गायब हो जाते हैं। बिना खोपड़ी वाला दानव ऐसी ही किसी तस्वीर में प्रत्यक्ष होता है।
घर के ठीक सामने के मंदिर का लैंडमार्क मिलते ही रुक गए और मुड़कर एक नजर घर की ओर देखा। जैसे ही नज़र ऊपर गयी तो चौंक गए! अर्रे! यह क्या! वहां तो कुछ नहीं था। घर की दीवारों पर छत नहीं थी। दीवार ढहे पड़े थे। बड़ा सा काला गेट औंधे मुंह 'भूतपूर्व' मकान के भीतर गिरा पड़ा था। उखड़े ईंटों वाली दीवारें खण्डहर के भयानक स्वरुप को भी मात कर रही थीं।
यह क्या हुआ? डर पूरी तरह से हावी हो गया। घर कहाँ गया? मेरा सारा सामान, किताबों से भरा मेरा बैग जिसे कुछ दिन पहले कमरा बदलते वक्त मैंने पैक किया था और अभी उनमें से किताबें बाहर नहीं निकाली थीं। दिल्ली आने के बाद से मेरी सारी जमा-पूंजी वही तो थी न। मैं भागकर ऊपर पहुंचा। कुछ भी तो नहीं था वहां। सीढ़ियां भी क्षतिग्रस्त।
मैं नीचे उतरा तो कुछ लोग खून से लथपथ एक अधेड़ व्यक्ति को बाइक से दौड़ा रहे थे। उनके हाथ में कोई धारदार हथियार था। मामला समझते देर न लगी। यहाँ दंगा हुआ है। कत्लेआम मचा है। मेरा घर दंगाइयों ने ही ध्वस्त किया है। मेरी किताबें इन्हीं लोगों ने लूटी होंगी। लेकिन इन्हें किताबों से क्या मतलब। वह तो छोड़ देते। बाकी सब ले जाते। तभी अचानक खुद पर भी हमला होने की संभावनाओं का ख्याल आया। कदम अपने आप तेज हो गए। जल्द से जल्द हम गली से बाहर आ जाना चाहते थे। लगता, पीछे कोई हथियार के साथ मेरी ओर बढ़ा आ रहा है। मारे डर के पीछे भी नहीं देखा जा रहा। तेजी से चलते हुए हम मुहल्ला छोड़ चुके थे।
दृश्य अचानक बदल गया। जैसे फिल्मों में एक दृश्य के बाद दूसरा दृश्य आ जाता है न वैसे ही। अब मैं दिल्ली की किसी ऐतिहासिक इमारत के सामने था। इमारत के बारे में ठीक से याद नहीं। शायद लाल किला या क़ुतुब मीनार। मैं वहां किनारे एक जगह सहमा हुआ बैठा हूँ। चेहरे पर गहरी शिकन है। मुझे समझ नहीं आ रहा क्या करूँ। इतनी किताबें फिर कैसे इकट्ठा करूंगा। घर! घर भी तो उजड़ गया था। कहाँ जाऊं? कहाँ रहूँ? कितना अच्छा था न सब, सामान्य। कुछ भी तो नहीं था सुबह तक। ये दंगे क्यों हो गए। न होते तो मैं आज अपनी किताबों को अलमारी में करीने से सजा रहा होता। या थका हुआ महसूस करता तो यूं ही कोई एक किताब बैग से निकाल पढ़ रहा होता। लेकिन अब तो न बैग है न किताबें न घर। हां, थकन थी और बहुत ज्यादा थी।
एक किनारे किसी बेंचनुमा कुर्सी पर बैठ घबराया हुआ चारों तरफ लोगों के चेहरे देख रहा था। किसी के चेहरे पर दंगे का दुःख नहीं था, डर नहीं था। शायद किसी को पता ही न हो कि उन्हीं के शहर के एक मोहल्ले में दंगा हुआ है। न जाने कितने लोग बरबाद हो चुके हैं। उन बर्बाद लोगों में से एक मैं भी हूँ। उन्हें क्या पता कि जीवन और मृत्यु के बीच सिर्फ एक दौड़ भर का भी फासला हो सकता है!
फिर मैं सोचने लगा कि क्या होता अगर मैं तेज न भागता। अगर पीछे से कोई बाइक सवार मुझ पर पेट्रोल बम फेंक जाता। कोई उन्मादी दंगाई किसी धारदार हथियार से मेरे पीठ से छाती तक एक गहरा आर-पार सुराख़ कर देता! कोई मेरी खोपड़ी पर हॉकी की मजबूत लकड़ी से तेज प्रहार कर अट्टाहस करता हुआ आगे निकल जाता! क्या होता, यह सोचकर मैं एक बार फिर सहम गया।
मेरे ख्याल में वो सारे दंगे एक बार को गुजर गए जिनके बारे में अख़बार में पढ़ते मैंने पन्ने पलट दिए थे। जिनके बारे में बात करते हुए मैं अपनी संस्कृति पर किसी के गलत हस्तक्षेप की सजा के बतौर किसी एक पक्ष के दंगाइयों को सही ठहराने लगता। दंगों को सामान्य दृष्टि में लेने की अपनी आदत पर आज आत्मग्लानि महसूस हो रही थी। क्योंकि जब मैं गली से बाहर भाग रहा था तब मुझे महसूस हो रहा था कि पीछे से वार करने वाले की पहचान करने और उसे अपनी पहचान बताने का मेरे पास बिल्कुल वक़्त नहीं था। मुझे ऐसा एक पल भी नहीं लगा कि पीछे वाले को अगर पता लगे कि मैं उन्हीं के धर्म का हूँ तो वो मुझे छोड़ देंगे। कि उनके पास भी ये पता करने का वक़्त नहीं था।
मेरे चेहरे पर डर के साथ अब सुकून का भाव था। परम सुकून। सुकून के इसी भाव के साथ मैं पास ही एक बड़े से स्टॉल के पास लगी हल्की भीड़ की ओर बढ़ने लगा। लोग स्टॉल पर रखी किताबें देख रहे हैं। उलट-पुलट रहे हैं। एक करीब 12-13 साल का लड़का है। गन्दी सी सफ़ेद शर्ट पहने गहरे रंग का वह लड़का बड़े ध्यान से लोगों को देख रहा है। उनकी बातों को सुनने की कोशिश कर रहा है। मैं नजदीक पहुंचा तो देखा पुरानी किताबें थीं। सस्ते दामों पर। नयी शुरुआत करने की सूझी। सोचा यहीं से कुछ किताबें खरीदकर फिर से संग्रहण की कोशिश शुरू करता हूँ।
इधर-उधर तेजी से नज़रें दौड़ने लगीं। अचानक 'गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान' दिखी। फिर 'वे दिन', 'परिंदे', 'चाँद का मुंह टेढ़ा है', 'निशा निमंत्रण', 'उर्वशी', 'कश्मीरनामा'। एक-एक कर मेरी सारी किताबें। मैंने झट से उन किताबों को इकठ्ठा किया और रो पड़ा। बहुत देर तक रोता रहा। चिल्ला-चिल्लाकर। वैसे ही जैसे किसी भयानक दंगे से बचने के बाद कोई अपना ज़िंदा दिख जाए तो आंसुओं के बांध फूट जाते हैं न, वैसे ही। खूब रोया। रोते-रोते मैंने उस सफ़ेद शर्ट वाले को किताबें दिखाकर इशारा किया। शायद पूछ रहा था - 'भाई! ये किताबें तो मेरी हैं, तुम्हें कहाँ से मिलीं?'
वह कुछ बोलता कि नींद खुल गयी। सपने का समापन हो चुका था। दिल पर हाथ रखा तो धड़कनें अभी तक असामान्य थीं। भयानक सुकून मिला कि मैं मेरी किताबों के साथ सुरक्षित हूँ। कोई दंगा नहीं हुआ था। कोई मार-काट नहीं हुई थी। सपना था। भयानक सपना। क्यों था, कैसे था, नहीं पता। मैंने एक बार फिर सारे दृश्यों को मनोमन दुहराया। सच में भयानक था। फिर आदतन इस सपने को भी कल्पना से आगे बढ़ाने की इच्छा हुई। कि इसे कोई दिलचस्प अंत दे दें लेकिन हिम्मत नहीं हुई। सोचा, दोस्त को फोन कर बता दें। सुबह का सपना है कहीं सच न हो जाए, लेकिन फोन नहीं लगा तो इरादा छोड़ दिया।
मैं अब उस सफ़ेद शर्ट वाले बच्चे के बारे में सोच रहा हूँ कि उसने ये किताबें कहाँ से इकट्ठी की होंगी! कहीं दंगे में उसका घर-परिवार भी तो होम नहीं हो चुका था? या फिर कहीं वो दंगाइयों की ओर से तो नहीं था? नहीं, ये कैसे हो सकता है! इतना छोटा दंगाई! इम्पॉसिबल! जरूर दंगाइयों ने ये किताबें सड़कों पर बिखेर दी होंगी। आखिर उन्हें तो खून बहाना था। ये किताबें उनके रास्ते की बाधा हो सकती थीं। ये बच्चा किसी कबाड़ी का बच्चा होगा जो कूड़े के ढेर में अपनी सांस खोजता है। सड़क पर बिखरे इन किताबों को उसीने इकठ्ठा किया होगा। ये स्टॉल उन्हीं दंगों में लूटी गयी किताबों की रही होगी।
तमाम तार्किक कसौटियों पर अनफिट यह कहानी सच में एक सपना है। सपना जो मैंने पिछले शनिवार को तकरीबन 8 या साढ़े 8 बजे सुबह देखा था। एक्जैक्ट दृश्यों को उकेरने में सफलता नहीं मिली लेकिन सपना बेहद भयावह था। दंगे का एक सैम्पल सरीखा। किरदार शायद केवल सपने की उपज नहीं होंगे। दंगे तो ऐसे ही होते होंगे न! मकान तो ऐसे ही लूटे जाते होंगे! किताबें, छत, परिवार सब। दंगे की आँखें कहाँ होती हैं। कहाँ देखता है वह कि सामने कौन है! सामने क्या है! सिर्फ हाथ होते हैं, जिनसे वह घर जलाते हैं, लूटते हैं, हत्याएं करते हैं। हां, पैर भी होते हैं जिनसे वह आंधी की तरह आते हैं और सब कुछ तहस-नहस कर गायब हो जाते हैं। बिना खोपड़ी वाला दानव ऐसी ही किसी तस्वीर में प्रत्यक्ष होता है।