Monday 26 March 2018

जीवन और मृत्यु के बीच सिर्फ एक दौड़ भर का भी फासला हो सकता है!

ली में घुसते ही लोग बाइक पर बैठकर, पैदल ही या अन्य वाहनों से तेजी से भागे जा रहे थे। मामला क्या था अभी समझ नहीं आ रहा था। हम गली में अपने घर की और बढ़ रहे हैं। अभी किसी भी तरह की असामान्य स्थिति का अंदाज़ा नहीं है। मोड़ के बाद सीधे घर तक जाने वाली ऋजु सड़क पर बढ़ते-बढ़ते अचानक लगा कि सब-कुछ सामान्य नहीं है। यहाँ जरूर कुछ हुआ है। अचानक अनजान डर दिल में समाया जा रहा है। सोचे, जल्द से जल्द घर पहुँच जाएं।

घर के ठीक सामने के मंदिर का लैंडमार्क मिलते ही रुक गए और मुड़कर एक नजर घर की ओर देखा। जैसे ही नज़र ऊपर गयी तो चौंक गए! अर्रे! यह क्या! वहां तो कुछ नहीं था। घर की दीवारों पर छत नहीं थी। दीवार ढहे पड़े थे। बड़ा सा काला गेट औंधे मुंह 'भूतपूर्व' मकान के भीतर गिरा पड़ा था। उखड़े ईंटों वाली दीवारें खण्डहर के भयानक स्वरुप को भी मात कर रही थीं।

यह क्या हुआ? डर पूरी तरह से हावी हो गया। घर कहाँ गया? मेरा सारा सामान, किताबों से भरा मेरा बैग जिसे कुछ दिन पहले कमरा बदलते वक्त मैंने पैक किया था और अभी उनमें से किताबें बाहर नहीं निकाली थीं। दिल्ली आने के बाद से मेरी सारी जमा-पूंजी वही तो थी न। मैं भागकर ऊपर पहुंचा। कुछ भी तो नहीं था वहां। सीढ़ियां भी क्षतिग्रस्त।

मैं नीचे उतरा तो कुछ लोग खून से लथपथ एक अधेड़ व्यक्ति को बाइक से दौड़ा रहे थे। उनके हाथ में कोई धारदार हथियार था। मामला समझते देर न लगी। यहाँ दंगा हुआ है। कत्लेआम मचा है। मेरा घर दंगाइयों ने ही ध्वस्त किया है। मेरी किताबें इन्हीं लोगों ने लूटी होंगी। लेकिन इन्हें किताबों से क्या मतलब। वह तो छोड़ देते। बाकी सब ले जाते। तभी अचानक खुद पर भी हमला होने की संभावनाओं का ख्याल आया। कदम अपने आप तेज हो गए। जल्द से जल्द हम गली से बाहर आ जाना चाहते थे। लगता, पीछे कोई हथियार के साथ मेरी ओर बढ़ा आ रहा है। मारे डर के पीछे भी नहीं देखा जा रहा। तेजी से चलते हुए हम मुहल्ला छोड़ चुके थे।


दृश्य अचानक बदल गया। जैसे फिल्मों में एक दृश्य के बाद दूसरा दृश्य आ जाता है न वैसे ही। अब मैं दिल्ली की किसी ऐतिहासिक इमारत के सामने था। इमारत के बारे में ठीक से याद नहीं। शायद लाल किला या क़ुतुब मीनार। मैं वहां किनारे एक जगह सहमा हुआ बैठा हूँ। चेहरे पर गहरी शिकन है। मुझे समझ नहीं आ रहा क्या करूँ। इतनी किताबें फिर कैसे इकट्ठा करूंगा। घर! घर भी तो उजड़ गया था। कहाँ जाऊं? कहाँ रहूँ? कितना अच्छा था न सब, सामान्य। कुछ भी तो नहीं था सुबह तक। ये दंगे क्यों हो गए। न होते तो मैं आज अपनी किताबों को अलमारी में करीने से सजा रहा होता। या थका हुआ महसूस करता तो यूं ही कोई एक किताब बैग से निकाल पढ़ रहा होता। लेकिन अब तो न बैग है न किताबें न घर। हां, थकन थी और बहुत ज्यादा थी।

एक किनारे किसी बेंचनुमा कुर्सी पर बैठ घबराया हुआ चारों तरफ लोगों के चेहरे देख रहा था। किसी के चेहरे पर दंगे का दुःख नहीं था, डर नहीं था। शायद किसी को पता ही न हो कि उन्हीं के शहर के एक मोहल्ले में दंगा हुआ है। न जाने कितने लोग बरबाद हो चुके हैं। उन बर्बाद लोगों में से एक मैं भी हूँ। उन्हें क्या पता कि जीवन और मृत्यु के बीच सिर्फ एक दौड़ भर का भी फासला हो सकता है!

फिर मैं सोचने लगा कि क्या होता अगर मैं तेज न भागता। अगर पीछे से कोई बाइक सवार मुझ पर पेट्रोल बम फेंक जाता। कोई उन्मादी दंगाई किसी धारदार हथियार से मेरे पीठ से छाती तक एक गहरा आर-पार सुराख़ कर देता! कोई मेरी खोपड़ी पर हॉकी की मजबूत लकड़ी से तेज प्रहार कर अट्टाहस करता हुआ आगे निकल जाता! क्या होता, यह सोचकर मैं एक बार फिर सहम गया।

मेरे ख्याल में वो सारे दंगे एक बार को गुजर गए जिनके बारे में अख़बार में पढ़ते मैंने पन्ने पलट दिए थे। जिनके बारे में बात करते हुए मैं अपनी संस्कृति पर किसी के गलत हस्तक्षेप की सजा के बतौर किसी एक पक्ष के दंगाइयों को सही ठहराने लगता। दंगों को सामान्य दृष्टि में लेने की अपनी आदत पर आज आत्मग्लानि महसूस हो रही थी। क्योंकि जब मैं गली से बाहर भाग रहा था तब मुझे महसूस हो रहा था कि पीछे से वार करने वाले की पहचान करने और उसे अपनी पहचान बताने का मेरे पास बिल्कुल वक़्त नहीं था। मुझे ऐसा एक पल भी नहीं लगा कि पीछे वाले को अगर पता लगे कि मैं उन्हीं के धर्म का हूँ तो वो मुझे छोड़ देंगे। कि उनके पास भी ये पता करने का वक़्त नहीं था।

मेरे चेहरे पर डर के साथ अब सुकून का भाव था। परम सुकून। सुकून के इसी भाव के साथ मैं पास ही एक बड़े से स्टॉल के पास लगी हल्की भीड़ की ओर बढ़ने लगा। लोग स्टॉल पर रखी किताबें देख रहे हैं। उलट-पुलट रहे हैं। एक करीब 12-13 साल का लड़का है। गन्दी सी सफ़ेद शर्ट पहने गहरे रंग का वह लड़का बड़े ध्यान से लोगों को देख रहा है। उनकी बातों को सुनने की कोशिश कर रहा है। मैं नजदीक पहुंचा तो देखा पुरानी किताबें थीं। सस्ते दामों पर। नयी शुरुआत करने की सूझी। सोचा यहीं से कुछ किताबें खरीदकर फिर से संग्रहण की कोशिश शुरू करता हूँ।

मैं स्टॉल के नज़दीक पहुंचा। सामने 'कितने पाकिस्तान' रखी थी। उसके पीछे उस पर अखबार का लगाया हुआ कवर चिपका हुआ था। कवर पर नजर पड़ी। यह तो जनसत्ता अख़बार है। ठीक से देखा। मेरा शक़ सही निकला। मेरी किताब थी। नहीं, मेरी नहीं थी। दोस्त की थी, जिसे मैंने हड़प लिया था। पीछे कवर पर मोबाइल नम्बर लिखा था। मैंने ही लिखा था। मेरी लिखावट थी। मेरी किताब यहाँ कैसे? तब तो और भी होंगी।

इधर-उधर तेजी से नज़रें दौड़ने लगीं। अचानक 'गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान' दिखी। फिर 'वे दिन', 'परिंदे', 'चाँद का मुंह टेढ़ा है', 'निशा निमंत्रण', 'उर्वशी', 'कश्मीरनामा'। एक-एक कर मेरी सारी किताबें। मैंने झट से उन किताबों को इकठ्ठा किया और रो पड़ा। बहुत देर तक रोता रहा। चिल्ला-चिल्लाकर। वैसे ही जैसे किसी भयानक दंगे से बचने के बाद कोई अपना ज़िंदा दिख जाए तो आंसुओं के बांध फूट जाते हैं न, वैसे ही। खूब रोया। रोते-रोते मैंने उस सफ़ेद शर्ट वाले को किताबें दिखाकर इशारा किया। शायद पूछ रहा था - 'भाई! ये किताबें तो मेरी हैं, तुम्हें कहाँ से मिलीं?'

वह कुछ बोलता कि नींद खुल गयी। सपने का समापन हो चुका था। दिल पर हाथ रखा तो धड़कनें अभी तक असामान्य थीं। भयानक सुकून मिला कि मैं मेरी किताबों के साथ सुरक्षित हूँ। कोई दंगा नहीं हुआ था। कोई मार-काट नहीं हुई थी। सपना था। भयानक सपना। क्यों था, कैसे था, नहीं पता। मैंने एक बार फिर सारे दृश्यों को मनोमन दुहराया। सच में भयानक था। फिर आदतन इस सपने को भी कल्पना से आगे बढ़ाने की इच्छा हुई। कि इसे कोई दिलचस्प अंत दे दें लेकिन हिम्मत नहीं हुई। सोचा, दोस्त को फोन कर बता दें। सुबह का सपना है कहीं सच न हो जाए, लेकिन फोन नहीं लगा तो इरादा छोड़ दिया।

मैं अब उस सफ़ेद शर्ट वाले बच्चे के बारे में सोच रहा हूँ कि उसने ये किताबें कहाँ से इकट्ठी की होंगी! कहीं दंगे में उसका घर-परिवार भी तो होम नहीं हो चुका था? या फिर कहीं वो दंगाइयों की ओर से तो नहीं था? नहीं, ये कैसे हो सकता है! इतना छोटा दंगाई! इम्पॉसिबल! जरूर दंगाइयों ने ये किताबें सड़कों पर बिखेर दी होंगी। आखिर उन्हें तो खून बहाना था। ये किताबें उनके रास्ते की बाधा हो सकती थीं। ये बच्चा किसी कबाड़ी का बच्चा होगा जो कूड़े के ढेर में अपनी सांस खोजता है। सड़क पर बिखरे इन किताबों को उसीने इकठ्ठा किया होगा। ये स्टॉल उन्हीं दंगों में लूटी गयी किताबों की रही होगी।

माम तार्किक कसौटियों पर अनफिट यह कहानी सच में एक सपना है। सपना जो मैंने पिछले शनिवार को तकरीबन 8 या साढ़े 8 बजे सुबह देखा था। एक्जैक्ट दृश्यों को उकेरने में सफलता नहीं मिली लेकिन सपना बेहद भयावह था। दंगे का एक सैम्पल सरीखा। किरदार शायद केवल सपने की उपज नहीं होंगे। दंगे तो ऐसे ही होते होंगे न! मकान तो ऐसे ही लूटे जाते होंगे! किताबें, छत, परिवार सब। दंगे की आँखें कहाँ होती हैं। कहाँ देखता है वह कि सामने कौन है! सामने क्या है! सिर्फ हाथ होते हैं, जिनसे वह घर जलाते हैं, लूटते हैं, हत्याएं करते हैं। हां, पैर भी होते हैं जिनसे वह आंधी की तरह आते हैं और सब कुछ तहस-नहस कर गायब हो जाते हैं। बिना खोपड़ी वाला दानव ऐसी ही किसी तस्वीर में प्रत्यक्ष होता है। 

Tuesday 18 July 2017

उत्तर स्मृति जलधि तरंगाः वंस अपान ए टाइम

वंस अपान ए टाइम...
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उस दिन सवाल था कि कौन क्या बनना चाहता है? ज़िन्दगी का प्राथमिक फैसला उन कुछ दो-चार मिनटों में तय करना
था। सब लोग अपने-अपने लक्ष्यों बारे में पहले से सोच-समझकर बैठे हुए थे। किसी को आईआईटी से पढ़कर इंजीनियर बनना था, किसी को आईएएस बनना था, किसी को कुछ बनना था तो किसी को कुछ! मेरा नम्बर आया तो दिमाग में एक ही चीज़ थी। भारत का सबसे बड़ा पद कौन सा होता है? राष्ट्रपति का! तो मुझे राष्ट्रपति बनना है। घर में एक ठहाका गूँज उठा। मेरा निर्णय हास्यास्पद था।

"राष्ट्रपति के लिए कोई परीक्षा नहीं होती", किसी ने कहा।
"तो कैसे बनते हैं राष्ट्रपति?"
"चुनाव होता है उनका!"
"अच्छा! तो हम चुनाव लड़ेंगे!"

माँ इंटर कॉलेज में नागरिक शास्त्र पढ़ाती थीं। उन्होंने राष्ट्रपति बनने का जो गणित समझाया कि एक पल को मन राष्ट्रपति बनने से हट ही गया। लेकिन फिर खुद सिविक्स इंटरमीडिएट की किताब उठाकर विस्तार से राष्ट्रपति चुनावों के बारे में पढ़ने लगा।

1.राष्ट्रपति बनने के लिए व्यक्ति का गैर-राजनीतिक होना ज़रूरी है।
2.उसकी उम्र 35 वर्ष से अधिक होनी चाहिए।
3.किसी क्षेत्र में बड़ा नाम होना चाहिए।

योग्यताओं में घुसने में अभी हमारे लिए लम्बा वक़्त था। पढ़ाई लिखाई चलती रही और इन सबके बीच ध्यान एक ऐसा रास्ता तैयार करने में था जिससे एक फेमस व्यक्ति बना जा सके। इसीलिए मुझे कभी इंजीनियर नहीं बनना था, डॉक्टर नहीं बनना था, मुझे राजनेता बनना था। तभी ही तो फेमस हुआ जा सकता है।
राजनीति में मन लगने लगा। फिर लगा कि यह भी मुश्किल है। इसके लिए बहुत पैसा चाहिए। कुछ ऐसा तलाशना था जो हमसे ठीक से हो पाए। लेखन में रुचि यहीं से जगी। लिखकर भी तो फेमस हुआ जा सकता है न! अब हम लिखेंगे। कक्षा 6 में थे तब! हाइस्कूल आते-आते दिमाग में यह बात पुख़्ता रूप से दर्ज जो गयी कि ज़िन्दगी में जो भी करना है, बड़ा करना है। तय कर लिया था, कि अब साहित्य ही मेरा लक्ष्य होगा। विज्ञान वर्ग से इंटरमीडिएट उत्तीर्ण होकर बीएससी करना दुर्भाग्यपूर्ण फैसला रहा। इन सबके बीच साहित्य जीवित था मुझमें यही मेरी उपलब्धि थी।

खैर! हम राष्ट्रपति की कहानी पर थे। घर में ही नहीं, रिश्तेदारों के बीच भी मेरी हंसी होती थी कि मुझे राष्ट्रपति बनना है। कई लोगों ने मुझे राष्ट्रपति नाम से ही सम्बोधित करना शुरू कर दिया। मित्रों के बीच भी मेरी व्यस्तता को लेकर तानें इसी नाम से गढ़े जाने लगे। राष्ट्रपति से सम्बंधित कोई भी चर्चा होती और सामने हम पड़ जाएं तो एकाध जुमले हमारी ओर उछाल ही दिए जाते।
मेरा सपना मज़ाक बन गया। था भी तो मज़ाक जैसा ही। जब राष्ट्रपति उम्मीदवार तय हुए तो बड़े भाई ने मेरे पास फोन किया कि नामांकन करवाये की नहीं?

पूछा, किसका नामांकन!
तो, राष्ट्रपति का!
फिर हम दोनों हंस दिए। घर आये तो दीदी ने कहा, राष्ट्रपति बनने का ख्वाब सो गया क्या! हमने कहा, "नहीं तो! अभी उमर कहाँ हुयी!" बोलीं, "नहीं, अगर सो गया हो तो हम फिर से जगाएं!" शायद उनके लिए इस मज़ाक में हक़ीक़त की संभावना जीवित हो! शायद उन्हें हमारे इस मजाकिया सपने में कहीं आग दिखाई दे रही हो! शायद उन्हें उम्मीद हो कि रायसीना हिल्स कभी अपना ठिकाना हो ही जाये। किस्मत को कौन जानता है। एक चाय विक्रेता जब 'किस्मतवाला' बना तो सीधे प्रधानमंत्री हो गया तो हमारी किस्मत भी कुछ तो बड़ा करवा ही सकती है।

अब मेरे मन में क्या है, मैं खुद नहीं समझ सकता। राष्ट्रपति-चुनाव को 2007 से बारीकी से देख रहा हूँ और लगातार मेरी इस पद के लिए योग्यता बजाय बढ़ने के घटती जा रही है। एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया जहाँ अब्दुल कलाम योग्यता में एक समर्पित पार्टी कार्यकर्ता प्रतिभा पाटिल से पीछे रह जाते हों, एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया जिसमें राष्ट्रपति पद सत्तारूढ़ पार्टी का सबसे वरिष्ठ नेता जब प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा सका, उसके तबके त्याग का पुरस्कार बन जाता हो, एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया जिसमें अब उम्मीदवार की जाति उसके लिए गणतंत्र के सर्वोच्च पद का आसन तैयार करती हो उसमें अब मेरे लिए सम्भावनाएं धीरे-धीरे खत्म होती लग रही हैं। मैं अब साहित्य स्वान्तः सुखाय के उद्देश्य से लिखता हूँ और अब मुझे न राजनेता बनने का शौक है और न ही फेमस होने की ही इच्छा है।।

उत्तर स्मृति जलधि तरंगाः एकांतजन्य

13 june 2016
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नॉएडा सेक्टर 20, एक मंदिर के ठीक सामने एक छोटा सा पार्क है। बगल में एक कॉलोनी है, तो साफ़ है कि कॉलोनी वालों के लिए ही ये छोटी सी जगह निश्चित की गयी होगी। दिन भर रूम में अकेले पड़े रहकर बोर होने के बाद पाँव अनायास ही इस ओर बढ़े चले आए। आया तो मंदिर देखकर था, लेकिन मंदिर में गया ही नहीं।यहीं आकर बैठा हूँ शाम से। जब बात करने के लिए कोई न हो तो आस पास की हलचल से ही वार्तालाप करना मजबूरी हो जाती है।

यहाँ उस हलचल के नाम पर सिर्फ दो कोनें गुलज़ार हैं। मेरे सामने एक वृत्त की शक्ल में तकरीबन 6-7 लोग ताश खेल रहे हैं, बड़े ही शांतिपूर्ण ढंग से। मेरे पीछे तकरीबन 15-16 बच्चे एक छोटा सा हेलीकॉप्टर उड़ा रहे हैं। उनमें दो किसी संपन्न परिवार के बच्चे हैं। ये हेलीकॉप्टर उन्हीं का है। बाकी उस हेलीकॉप्टर के उड़ने पर उसके नीचे खड़े होकर उसे मुंह बाए देख रहे हैं। बच्चों के परिवार की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा उनके वस्त्र और उनके आचरण और उनकी भाषा भी देखकर साफ़ तौर पर लगाया जा सकता है।

एक के हाथ में रिमोट है, दूसरे का हाथ हेलिपैड बना हुआ है, हेलीकॉप्टर बार बार वहीं से उड़ान भर रहा है। नीचे बाकी के सभी बच्चे कौतूहल से उड़ते हेलीकॉप्टर को देख रहे हैं, खुश हो रहे हैं, उनमें एक वह बच्चा भी शामिल है जिसने चलने की कला शायद 1 महीने पहले ही सीखी होगी, मतलब ढाई या तीन साल का रहा होगा। जाने क्या उम्मीद है उन्हें, हेलीकॉप्टर की तरह आकाश छूने की या फिर हेलीकॉप्टर को एक बार छू लेने की। वैसे उनके मन में हीन भावना भी हो सकती है कि मेरे पास भी यह होना चाहिए। शायद आज उनके घर में रोटी और सब्जी के साथ होने वाले डिनर में इस बात पर विमर्श भी हो, जो उनके पिता की ऊंची और तीखी आवाज से खत्म भी हो जाए।

जो भी हो, लेकिन बच्चों ने भरपूर आनंद लिया। उन दो हेलीकॉप्टर के मालिकों के अलावा भी सारे बच्चों ने। उनमें एक नीली बनियान पहने हुए जो बच्चा था, वह शायद हेलीकॉप्टर को लेकर काफी उत्साहित था। उसके नीचे काफी उछल रहा था, बार बार हेलीकॉप्टर को हवा में ही छूने की कोशिश करता हुआ। फिर अचानक हेलीकॉप्टर मालिक बच्चे ने जो स्वास्थ्य में भी उसका तीन गुना था, उसने उसे डाँट दिया - "बार बार हाथ क्यों लगाता है।" फिर क्या था, नीली बनियान वाले बच्चे ने इस खेल से कुछ भुनभुनाते हुए स्वतः विदाई ले ली।

स्वाभिमान, आत्मप्रतिष्ठा, खुद्दारी- ये भौतिक सुविधाओं या केवल संपन्नता के वातावरण में नहीं फलती फूलती हैं, ये इंसान के लहू की आग में पकती हैं, जिससे इंसान की इंसानियत, व्यक्ति का व्यक्तित्व सोने जैसा दमकता है।

उत्तर स्मृति जलधि तरंगाः एकांतबंध

May 21 · Noida ·
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थके हारे,
तीसरी मंजिल से जब नीचे उतरते हैं,
तब काटती है भागती दुनिया।
यही मन चाहता है,
अंस पर लटका ये काला बैग लेकर
सतत
चलता रहूँ निर्लक्ष्य होकर,
कदम हाथी के जैसे मन्द हों,
ज़रूरत-कामना-दायित्व के बाज़ार मन में
हमेशा के लिए ही बन्द हों।
जो ठहरूं तो,
न सम्मुख हो कभी मेरे,
कहीं से भी कभी से भी,
मुझे पहचानने वाला।
मेरे मन का उलझता तार रख दूं मैं
किनारे कुछ समय।
निरन्तर गति,
अनन्तर राह,
छोटे डग
न कोई चाह।
न कोई यति
कि ऐसी गति
नियति में हो तो मिल जाए।
मेरी बिलकुल भी इच्छा ही नहीं होती
कि ऑफिस के
बड़े ही भव्य बिल्डिंग से
निकलते राह से चलता चला जाऊं
जहाँ कुछ दूर है वो घर,
कि जिसमें है वो कमरा एक बिस्तर
एक तकिया, एक टीवी, एक पँखा
एक एसी से सजा,
जहाँ पकता रहा होगा
कभी खाना,
मगर अब पक रहा हूँ मैं।

उत्तर स्मृति जलधि तरंगाः रुखसत-ए-बेर सराय

छूटते पदचिन्हों के साथ एक दौर इतिहास होता जा रहा है...👣
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16/04/2017,मंगलवार,बेर सराय

बेर सराय में मेरे रहने के ढाई ठिकाने रहे।पहला Samar का आवास दूसरा Abhishek का रूम और आधा स्वयं मेरा अपना कमरा।मैं अपने रूम पर कम ही पाया जाता था।

दिन भर आईआईएमसी से लेकर जेएनयू तक भटकते रहने के बाद रात में यहां भी एक संसद लगती।हंसी-ठहाके,गीत-ग़ज़ल-कविता,राजनीति-समाजनीति विमर्श हर तरह के रंगों से इस महफ़िल की रंगोली बनती थी।लगभग साल भर चली इस प्रक्रिया में एक दूसरे के बारे में बात करना,उसके उद्देश्यों के बारे में पूछना उसका इतिहास जानना,आने वाले दिनों के लिए क्या योजनाएं हैं,क्या करना चाहते हैं इन सभी चीजों से सम्बंधित बातें करना इन रतजगों का विषय हुआ करती थीं।तमाम तात्कालिक राजनैतिक और सामाजिक मुद्दे सुलझते थे।खूब बातें होती थीं।चूंकि हममें से अधिकांश लोग रचनाकार थे तो कभी कभार रात 2 बजे ही कवि सम्मेलन भी आयोजित हो जाया करता था। Anurag भाई सर्वाधिक मांग वाले कवि थे।इसके बाद आर्य भारत की आग उगलती कविताएं सुनी जाती थीं।

आज हमने भी सारा सामान समेट लिया है इन सभी यादों के साथ।बेर सराय में रुकने की अब कोई सम्भावना नहीं है।यहां रुकने का अब कोई मतलब और अधिकार भी नहीं है।जीवन के सर्वाधिक अविस्मरणीय क्षणों का इतिहास समेटे इस शानदार वातावरण में रहने के कारण भी तो खत्म होते जा रहे हैं।कर्मभूमि भी अब नॉएडा सेक्टर 10 की दौड़ती भागती ज़िन्दगियों के बीचोबीच मिल गयी है।वहां कोई ठहराव नहीं होगा।वहाँ कहीं एकांत नहीं होगा,वहां बेर सराय की तरह स्वतंत्रता रात और दिन की समयसीमा से आज़ाद नहीं होगी।वहां रतजगे न हो पाएंगे शायद!वहां महफिलें न लग पाएंगी शायद।
ये सारी चीज़ें मन को दुखी कर रही हैं।मकान नंबर 14 के छठवीं मन्ज़िल के रूम नम्बर 604 में लगने वाली महफ़िल सबसे ज्यादा याद आने वाली है। Jitendra उर्फ़ जीतू की चाय और शिकंजी शायद ही भूल पाएं और वो हमारे अपने 'संसद' की सीढ़ियां जिन पर बैठकर आईआईएमसी बैडमिंटन कोर्ट की थकान उतारा करते थे,जिन पर अपनी समस्त निराशाओं परेशानियों को बगल में बिठाकर उनसे बात करने की कोशिश करते थे वे सब अब पीछे छूट रही हैं।एक बार फिर से किसी रूम नम्बर 604 के कमरे में कवियों का जमघट हो,इसकी संभावना भी अब हमसे हाथ छुड़ा रही है।

वक़्त की धारा ने सब कुछ तितर-बितर कर दिया है। Prashant मातुल और Vivek नॉएडा में तो हैं लेकिन फिर भी दूर हैं।ये दूरी सिर्फ किलोमीटर में नहीं है अब,इस दूरी के साथ समय की विमा भी जुड़ गई है।अनुराग और अभिषेक फिलहाल तो यहीं हैं लेकिन आगे इनका भी ठिकाना वसंतकुंज हो जाय शायद। Aman Brar चंडीगढ़ चला गया, Aman और Gaurav का कोई भरोसा नहीं कहाँ रहे। Neeraj राजस्थान के प्रवास पर है। आर्य भारत तो गांधी फ़ेलोशिप वाले हो गए।हाँ,समरवा तो कहीं भी रहे,उससे दूरी महसूस नहीं होगी,उसका पीछा तो ज़िन्दगी भर नहीं छोड़ना है।अब जा रहे हैं तो हर रोज की तरह अब कोई उम्मीद नहीं है कि रात को तो सब मिलेंगे ही,और सब लोग न सही अनुराग,अभिषेक,समर, Rohin तो ज़रूर।अब वो उम्मीद भी नहीं रहेगी।पता नहीं कितना याद आओगे तुम सब!अभी तो कोई अंदाज़ा नहीं।यहां रहते हुए खाली और अकेले रहना लगभग भूल ही गये थे।

ये बेर सराय की जमघट थी।अधिकांश ने अपने ठिकाने ढूंढ लिए और छोड़ दिया 2016-17 के कालखण्ड के उस बेर सराय को अकेला,जो हम सबकी हर महफ़िल का साझेदार हुआ करता था।सब कुछ अब पीछे छूट रहा है।छूटते पदचिन्हों के साथ एक दौर इतिहास होता जा रहा है।ऐसा लग रहा है एक संस्कृति से अलगाव हो रहा है।एक सभ्यता पीछे छूट रही है।भविष्य भी तो रोंआ गिराए ही हमारा स्वागत कर रहा है।

ख़ैर,अब इतने बड़े त्याग की बुनियाद पर कुछ अच्छा ही होगा,यही उम्मीद है।सब खुश रहें,सब सफल होवें,सबका भला हो।
अलविदा बेर सराय

उत्तर स्मृति जलधि तरंगा: नवसोपानम्

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे




एक नए अनुभव की दहलीज़ पर कदम है आज!नयी पारी भी कह सकते हैं।स्मृतियां आज उन सारे दिनों की तस्वीरों पर रौशनी डाल रही हैं,जब जब आज ही की परिणति को लक्ष्य बनाकर हमारे निर्माण को धार दिया जा रहा था।शिक्षा का सम्पूर्ण उद्देश्य एक अच्छी नौकरी की संभावना की सीमा पार नहीं कर पाता था।

नौकरी तो है नहीं यह,कुछ उसी जैसा है।अब अच्छी है या बुरी है,नहीं पता!अलग-अलग मापदंडों के अलग-अलग फैसले हैं।

अब हर रोज़ ऑफिस जाना होगा।यहां शायद बहाने नहीं चलेंगे।10 बजे का मतलब 10 बजे होगा।अभी तक तो खासकर हमारे लिए 10 बजे मतलब 10 बजे तो बिलकुल नहीं होता था,वह कभी 11 बजे होता,कभी 12 बजे होता तो कभी कभी मूड ठीक-ठाक रहता तो 9 बजे हो जाता।लेकिन अब ऐसा नहीं है।अब 'बॉसवाद' का अनुगामी बनना ही पड़ेगा।अब तक भले किसी भी 'वाद' के विवाद में न पड़े हों,अब तो पड़ना ही पड़ेगा।

पहला अनुभव होगा,जब किसी की स्टाइल शीट हमारे अपने हर अंदाज़ को संचालित करेगी,हो सकता है ऐसा न भी हो,लेकिन लोगों का तो यही मानना है।ख़ैर जो भी हो,जाकर ही तो पता लगेगा कि क्या होना है।

इलाहबाद में था,तब भइया टाइम्स ऑफ़ इंडिया मंगाते थे।हमारी ज़िद थी कि हम पढ़ेंगे तो हिंदी अख़बार, अंग्रेजी तो बिलकुल नहीं।इसलिए हम कॉलेज जाते वक्त 'जनसत्ता' खरीद लेते थे।कई लोगों का सुझाव भी था कि जनसत्ता का एडिटोरियल जरूर पढ़ना चाहिए,इसलिए भी जनसत्ता ख़ास थी।अच्छा!हर जगह मिलता भी नहीं था।यूनिवर्सिटी रोड,abvp कार्यालय के नीचे मिल जाता,वहीं ले लेते थे।तब सोचा भी नहीं था कि आज जो अखबार इतनी शिद्दत से खरीद पढ़ रहे हैं,एक दिन उसी अखबार का कार्यालय अपना ऑफिस होगा।

अच्छा!लोग भी कह रहे हैं।जितने लोगों ने हमको थोड़ा-बहुत(जितना हम लिखते हैं)पढ़ा है,वो यही कहते हैं कि तुम्हारा लेखन था भी जनसत्ता लायक।अब ये तारीफ होती थी या कुछ और,पता नहीं।रोहिन का भी कहना था कि 'जनसत्ता तुम्हारी हिंदी बचा लेगा।'जनसत्ता की जो हिंदी है वो थोड़ी सी क्लिष्ट साहित्यिक हिंदी है।इसलिए भी उसकी भाषा थोड़ी विशिष्ट है,अलग है।एक मानक के तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में उसकी प्रतिष्ठा है।'जनसत्ता की हिंदी' एक मानक है,विशिष्ट है,अलग है।अगर ऐसा नहीं होता तो लल्लनटॉप ऑनलाइन के इंटरव्यू में शताक्षी की लिखी हिंदी पर टिप्पणी करते हुए सौरभ द्विवेदी ये न कहते कि 'तुम्हारी हिंदी तो जनसत्ता टाइप है।'और फिर उन तीन चयनित लोगों में शामिल भी कर लेते जिन्हें फाइनल इंटरव्यू देना है।

भाषा जो भी हो,जनसत्ता प्रतिष्ठित है एक ऐसे पत्रकारीय विकल्प के रूप में जिसमें वस्तुनिष्ठता,निष्पक्षता,विश्वसनीयता और पत्रकारिता अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में है।एक ब्रांड भी है,इसलिए मेरे अपने दोस्तों की नज़र में मैं सही जगह पर हूँ।

अब वहां जाकर मुझे क्या करना है,नहीं मालूम।टंकण करना है,अनुवाद करना है,न्यूज़ लिखना है,आर्टिकल लिखना है,रिपोर्टिंग करनी है!!पता नहीं।लेकिन कल इंडियन एक्सप्रेस अपार्टमेंट की इस बिल्डिंग में पाँव रखते ही सामाजिक सरोकार,सामाजिक मुद्दे और सारा समाज मेरे प्रति अपना नजरिया बदल देंगे।उस ऊँची बिल्डिंग के किसी कमरे की किसी कुर्सी पर बैठकर हम जो भी करें, सड़क को,गली को,मोहल्ले को,जिले को,प्रदेश को,देश को मुझसे 'कलम से क्रांति' करने की उम्मीद तो जरूरे होगी।देखना होगा कि इस उम्मीद की ज़िन्दगी के लिए अवसर के कितने ख़ुराक़ मुझे नसीब होते हैं।


आदमी जब बुज़ुर्गीयत की ओर बढ़ता है तो उसको नसीहत मिलती है कि 'उमर हो गयी,अब भगवद्गीता का पाठ करो।'जब कोई काम नहीं तब गीता पढ़ो ताकि मोक्ष हो जाए।ज्ञान-कर्म-संन्यास योग की शिक्षा का अनुपम संग्रह यह ग्रन्थ जीवन के उस किनारे पर पढ़ना जब ज्ञान-कर्म का दौर रुखसत हो चुका हो,सही नहीं लगता।गीता पढ़ने का सही समय तब है जब आप जीवन के समरांगण में उतर रहे हों।इसकी सही जरूरत तभी है।इसलिए आज यू ट्यूब पर आधा घण्टा कृष्णरूपी नितीश भारद्वाज से गीता सुने हैं।जो चीजें समझ आयी उन्हें साझा कर रहे हैं।

कृष्ण कहते हैं कि 'सत्पुरुष अपने अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करते।कर्म करने के अधिकारी मनुष्यों को कर्म के फल में आसक्त नहीं होना चाहिए।यदि आप विजय से मोहित नहीं होते हैं तो पराजय से घबराएंगे भी नहीं।और वैसे भी बाणों के संधान पर आपका अधिकार हो सकता है,आपकी एकाग्रता-ध्यान पर आपका अधिकार हो सकता है लेकिन उस मृग पर आपका कोई अधिकार नहीं जिस पर आप बाणों का संधान किये हुए हैं।इसलिए कर्मफल की इच्छा मत रखिये।कर्मफल की इच्छा व्यक्ति के गले में बंधा वो पत्थर है जो उसे उसके तहों से उठने नहीं देती।वो व्यक्ति को समाज से काटकर अलग कर देती है और उसे व्यक्तिगत लाभ और व्यक्तिगत हानि के दलदल में धकेल देती है।'

कृष्ण बताते हैं कि 'व्यक्तिगत लाभ से पाप की गली निकलती है।समाज आपसे नहीं है,आप समाज से हैं।इसलिए आप लोकसंग्रह और लोककल्याण को ही अपना प्रथम कर्तव्य मानिए,क्योंकि जो समाज के लिए कल्याणकारी होगा वही आपके लिए कल्याणकारी होगा।'

हालाँकि ये श्रीकृष्ण द्वापर में अर्जुन को संबोधित करते हुए कह रहे हैं।आज के समय में यह कितना प्रासंगिक है,कह नहीं सकते।लेकिन फिलहाल कर्तव्यों और कर्मों के इस दौर में अच्छे-बुरे की पहचान के लिए इससे बेहतर मानक और कोई उपलब्ध भी तो  नहीं है।इसलिए इसे मानना सिर्फ मजबूरी नहीं,सिर्फ ज़रुरत नहीं बल्कि एक प्रयोग एक प्रैक्टिकल भी है जो इस दृष्टान्त को या तो पुष्ट करेगा या फिर नष्ट करेगा।

ख़ैर!नयी पारी है,नये अनुभव होंगे।उत्सुकता,उत्साह और उम्मीद चरम पर हैं।
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प्रथम दिवस

ऑफिस तो अच्छा था।इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग के तीसरे फ्लोर पर है जनसत्ता एडिटोरियल का ऑफिस।बड़ा सा हॉल है,जिसमे अलग-अलग चैम्बर हैं,अलग-अलग डेस्क हैं।कोई कार्नर इंडियन एक्सप्रेस का है,कोई फाइनेंसियल एक्सप्रेस का,कोई जनसत्ता का तो कोई इंडियन एक्सप्रेस वुमन पोर्टल का।सब लोग अपने-अपने सिस्टम पर न्यूज़ इकट्ठा करने में लगे हुए हैं।मेरी ईमेल आई डी पर 3-4 लिंक्स आये थे।अंग्रेजी में थे,उनका हिन्दीकरण करके स्टोरी बनानी थी।

पहले दिन करीब 5 न्यूज़ स्टोरी ही बन पाई हमसे।काम कुछ यूं है कि बस पहले ही दिन मन ऊब गया है।लगता है हमसे न हो पायेगा अब कुछ।पहले कुछ घण्टे तो ऐसा लग रहा था जैसे क्लास में हों और क्लास वर्क मिला हुआ है,उसे ही करने की कोशिश कर रहे हैं।लेकिन यह क्लास तो थी नहीं।यह तो ऑफिस था।यहां सबकुछ हमारी मर्ज़ी से तो होना नहीं था।एक अदृश्य बन्धन था,जिससे बंधे हुए थे।ऊपर से एक सीनियर भाई साहब ने और मस्ती-वस्ती प्रतिबंधित कर रखा था।उनका कहना था जब तक इंटर्नशिप है,मेहनत करो,खाली मत बैठो।एक बार परमानेंट होने के बाद चाहे जो करो।
बड़ी मुश्किल थी।आदत छूट गयी है लगातार मेहनत करते रहने की,खाली न बैठने की।कैसे होगा ये सब!


क्लास रूम बहुत याद आ रहा था।एक दिन पुरानी ज़िन्दगी बिछड़ी हुयी महसूस हो रही थी।लग रहा था कितनी जल्दी बड़े हो गए।आज तक बड़े होने का एहसास नहीं था।बड़ा लड़का हूँ परिवार का,लेकिन कोई ज़िम्मेदारियों का भार नहीं था।स्वच्छन्द था,मनमौजी।अब लग रहा है जैसे इस पर बड़ा प्रहार होने वाला है।कल तक उत्साहित थे,आशान्वित थे।आज डरे हुए हैं,आशंकित हैं।क्या सच में जीवन में कर्मों का संग्राम छिड़ गया है,क्या सच में अब गाण्डीव पकड़ना ही पड़ेगा!क्या सच में...लड़ना ही पड़ेगा।

Friday 9 June 2017

स्मृति जलधि तरंगाः 8

आईआईएमसी आना पता नहीं किस्मत थी या मेहनत। लेकिन यहां आने के साल भर पहले की बात करें तो आईआईएमसी का नाम तक नहीं जानते थे। विज्ञान के विद्यार्थी थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज में तीन साल जिस जद्दोजहद के साथ बीएससी कंपलीट किया था उसने साइंस में पढ़ाई आगे जारी रखने की मंशा की कमर तोड़कर रख दी थी। कुछ नयी शुरुआत करनी थी। पत्रकारिता ने इसलिए भी अपनी ओर खींचा था क्योंकि लिखने और पढ़ने की अपनी आदत और अपने शौक से हम आजीवन जुड़े रहना चाहते थे। केशव सरस्वती उच्चतर माध्यमिक विद्या मंदिर रुद्रपुर में पढ़ाई करते वक्त उस स्कूल की छात्र संसद का एक बार सूचना प्रसारण मंत्री रह चुके थे, जिसका काम था प्रतिदिन की प्रार्थना सभा में समाचार वाचन करना। पत्रकार बनने की इच्छा ने तो तभी मन में जन्म ले लिया था। लेकिन जिस पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि से हम आते हैं वहां इस तरह के सपने देखे तो जा सकते हैं, लेकिन उन्हें पूरा करने का ख्याल भी अपने दिमाग से निकाल देना होता है। वहां सीख देने वाले ज्यादातर हितैषी आपको आईआईटी, पॉलीटेक्नीक, य़ूपीटीयू की तैयारी करके जल्द से जल्द अच्छा मेकैनिक बनने का सुझाव तक ही दे पाते हैं।

खैर, अजय भाई जो कि आईआईएमसी 2015-16 बैच के छात्र भी रहे हैं, उन्हीं की प्रेरणा और कोशिशों की बदौलत आईआईएमसी में आना हुआ। आईआईएमसी पहुंचे हुए उन बहुत कम लोगों में मैं शामिल था जिन्हें इस इंट्रेंस एग्जाम को पास कर लेने की कोई खुशी नहीं थी। मेरा खुश न होने का कारण था कि इस इंट्रेंस को पार करने के बाद भी मैं वहां जा नहीं सकता। मेरे अभिभावकों को मेरा साइंस की पढ़ाई छोड़ पत्रकारिता करना पसंद नहीं था। लेकिन जहां चाह, वहां राह। बड़े भाई परमानंद शुक्ला की सहायता से जिंदगी के इस बड़े मोड़ को स्वीकार करने का अवसर मिल ही गया।

अब चूंकि मुझे आईआईएमसी के इतिहास के विषय में ज्यादा कुछ पता नहीं था इसलिए मैं इसका आंकलन नहीं कर पा रहा था कि यहां जो कुछ भी हो रहा है, या जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है वह कितना सही है, कितना गलत। पत्रकारिता का क ख ग नहीं जानने के कारण शुरुआत में मुझे यहां कुछ भी समझ नहीं आया। क्लासेज रेग्यूलर चल रही थीं, टीचर्स शायद अपना शत प्रतिशत दे रहे थे। लेकिन क्लास में कई ऐसे विद्यार्थी थे जो आईआईएमसी के इस रवैय्ये से नाखुश थे। अब चूंकि मेरे पास कोई दृढ़ आधार नहीं था, इसलिए मैं इसकी विवेचना नहीं कर सकता था। शुरुआती दौर में डीजी सर का क्लास में आना, एडीजी सर का क्लास लेना, सबकुछ प्रभावित कर रहा था। तमाम कार्यक्रम खासकर हर शुक्रवार होने वाला सेमिनार, कक्षाएं, प्रायोगिक कक्षाएं, पुस्तकालय शानदार कैंपस वातावरण सब कुछ एक अच्छी अनुभूति की तरह थी। सहपाठी भी चूंकि चुने हुए लोग थे, इसलिए सब के सब प्रतिभाशाली और व्यवहारिक थे।

पत्रकारिता के एक बड़े संस्थान की जो छवि मेरे दिमाग में थी, वह पूरी तरह से आईआईएमसी से नहीं मिलती थी। एक विमर्श और बहस का जो मंच इस संस्थान में होना चाहिए था, जिससे पत्रकारीय कौशल के साथ साथ पत्रकारीय आदर्श और सिद्धांत भी छात्रों में विकसित हो सकते थे, वो यहां नदारद था। साहित्यिक संगोष्ठियों की पूर्ण अनदेखी की गई थी। क्लास के अधिकांश छात्रों में एक स्वस्थ बहस में शामिल होने की न तो क्षमता थी और न योग्यता। अधिकांश नें विचारधाराओं के झण्डे पकड़े हुए थे। जिसके विचार किसी धारा का हाथ थामें हुए होंगे उनकी कलम पत्रकारिता के उबड़-खाबड़ रास्तों का सफर कैसे तय कर पाएगी। वो तो वहीं जाएंगे जहां उन्हें वो धारा लेकर जाएगी, और ऐसे में तो पत्रकारिता को पीछे छूटना ही है। कुछ बोलने के लिए सुनना भी बहुत जरुरी है। कुछ लिखने के लिए पढ़ना भी बहुत जरुरी है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे के बिना चल नहीं पाएंगे। यहां बहुत से लोगों नें दोनों को अलग अलग चलाने की कोशिश की है। पूर्वाग्रह और अनुचित धारणाओं नें कई लोगों के बीच व्यक्तिगत दरार पैदा कर दिया था। विचारों की लड़ाई विचारों से होनी चाहिए थी, उन लड़ाइयों के बीच व्यक्तिगत संबंधों को वैसे ही सहेजकर रखना चाहिए जैसे दांतों के बीच जीभ। बहस का मैदान और कुरुक्षेत्र दोनों को अलग रखना पड़ेगा, यही सही है। यही कारण रहा कि कॉलेज के आखिरी दिन कई लोगों के संबोधन बहुत तीखे और आहत करने वाले रहे। हमें किनसे मोहब्बत है, ये हम बताएं या न बताएं लेकिन हम किनसे नफरत करते हैं इसका ढिंढोरा पीटना मैं जरुरी नहीं समझता। इससे तनाव बढ़ता है, समाज में आनंद का तारतम्य बिगड़ता है, और वैसे भी जीवन में अनेकानेक दुख हैं, क्यों अपनी ओर से उसमें कुछ जोड़ना है।

आखिरी दिन के संबोधन में मुझे किन किन लोगों ने प्रभावित किया था, मुझे कौन लोग अच्छे लगे मैं उन लोगों का नाम लेने वाला था वहां, लेकिन उन नामों में मैं एक नाम शामिल नहीं कर सकता था क्योंकि उन दिनों उस नाम से मेरे संबंध कुछ ठीक नहीं चल रहे थे, इसलिए मैनें किसी का नाम नहीं लिया। यह बात मुझे आज तक कचोटती है। आखिर एक छोटी सी गलतफहमी की वजह से मैं उन लोगों को उनके नाम लेकर संबोधित और आभार ज्ञापित नहीं कर पाया जिन लोगों की वजह से मेरा पूरा साल जीवन का सबसे बेहतरीन साल रहा है।

बीतते समय के साथ संस्थान  की दीवारो के भी रंग बदलते रहे। कई घटनाओं ने आहत किया। एक पत्रकारीय संस्थान में ऐसी गतिविधियों की आशा नहीं थी। पत्रकारिता को लेकर जो नरम आशाएं मन में थी, चटक कर टूटने लगीं। शिक्षकों ने साल भर वही किया जो उन्हें करना था। क्लास में एथिक्स और चेंज पढ़ाने सीखाने वाले लोगों नें उसके प्रैक्टिकल के दौरान अपने दरवाजे बंद कर लिए और ऐसा करके भी उन्होंने कुछ नई सीख हमारे कोश में जोड़ दिया। कुछ लोगों का साथ वास्तव में अविस्मरणीय रहा। वही आईआईएमसी की उपलब्धि कहे जा सकते हैं। बाकी एक साल का अंत उम्मीदों का अंत नहीं है। हर जगहों पर बुरा ही हो रहा होगा, यह भी तो संभव नहीं है। और हमारे लिए कुछ करने का अगर अवसर चाहिए तो हर जगह सही भी तो नहीं होगा। कुछ सही होगा, कुछ बदलेगा और कुछ हमें बदलना होगा। इसी आशा और विश्वास के साथ इस साल के सभी साथियों को जीवन का एक वर्ष खुशनुमा बनाने के लिए बहुत शुक्रिया और आने वाले लोगों को बहुत सारी शुभकामननाएं।

प्रणाम!

जीवन और मृत्यु के बीच सिर्फ एक दौड़ भर का भी फासला हो सकता है!

ग ली में घुसते ही लोग बाइक पर बैठकर, पैदल ही या अन्य वाहनों से तेजी से भागे जा रहे थे। मामला क्या था अभी समझ नहीं आ रहा था। हम गली में अपने...