Tuesday 18 July 2017

उत्तर स्मृति जलधि तरंगाः वंस अपान ए टाइम

वंस अपान ए टाइम...
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उस दिन सवाल था कि कौन क्या बनना चाहता है? ज़िन्दगी का प्राथमिक फैसला उन कुछ दो-चार मिनटों में तय करना
था। सब लोग अपने-अपने लक्ष्यों बारे में पहले से सोच-समझकर बैठे हुए थे। किसी को आईआईटी से पढ़कर इंजीनियर बनना था, किसी को आईएएस बनना था, किसी को कुछ बनना था तो किसी को कुछ! मेरा नम्बर आया तो दिमाग में एक ही चीज़ थी। भारत का सबसे बड़ा पद कौन सा होता है? राष्ट्रपति का! तो मुझे राष्ट्रपति बनना है। घर में एक ठहाका गूँज उठा। मेरा निर्णय हास्यास्पद था।

"राष्ट्रपति के लिए कोई परीक्षा नहीं होती", किसी ने कहा।
"तो कैसे बनते हैं राष्ट्रपति?"
"चुनाव होता है उनका!"
"अच्छा! तो हम चुनाव लड़ेंगे!"

माँ इंटर कॉलेज में नागरिक शास्त्र पढ़ाती थीं। उन्होंने राष्ट्रपति बनने का जो गणित समझाया कि एक पल को मन राष्ट्रपति बनने से हट ही गया। लेकिन फिर खुद सिविक्स इंटरमीडिएट की किताब उठाकर विस्तार से राष्ट्रपति चुनावों के बारे में पढ़ने लगा।

1.राष्ट्रपति बनने के लिए व्यक्ति का गैर-राजनीतिक होना ज़रूरी है।
2.उसकी उम्र 35 वर्ष से अधिक होनी चाहिए।
3.किसी क्षेत्र में बड़ा नाम होना चाहिए।

योग्यताओं में घुसने में अभी हमारे लिए लम्बा वक़्त था। पढ़ाई लिखाई चलती रही और इन सबके बीच ध्यान एक ऐसा रास्ता तैयार करने में था जिससे एक फेमस व्यक्ति बना जा सके। इसीलिए मुझे कभी इंजीनियर नहीं बनना था, डॉक्टर नहीं बनना था, मुझे राजनेता बनना था। तभी ही तो फेमस हुआ जा सकता है।
राजनीति में मन लगने लगा। फिर लगा कि यह भी मुश्किल है। इसके लिए बहुत पैसा चाहिए। कुछ ऐसा तलाशना था जो हमसे ठीक से हो पाए। लेखन में रुचि यहीं से जगी। लिखकर भी तो फेमस हुआ जा सकता है न! अब हम लिखेंगे। कक्षा 6 में थे तब! हाइस्कूल आते-आते दिमाग में यह बात पुख़्ता रूप से दर्ज जो गयी कि ज़िन्दगी में जो भी करना है, बड़ा करना है। तय कर लिया था, कि अब साहित्य ही मेरा लक्ष्य होगा। विज्ञान वर्ग से इंटरमीडिएट उत्तीर्ण होकर बीएससी करना दुर्भाग्यपूर्ण फैसला रहा। इन सबके बीच साहित्य जीवित था मुझमें यही मेरी उपलब्धि थी।

खैर! हम राष्ट्रपति की कहानी पर थे। घर में ही नहीं, रिश्तेदारों के बीच भी मेरी हंसी होती थी कि मुझे राष्ट्रपति बनना है। कई लोगों ने मुझे राष्ट्रपति नाम से ही सम्बोधित करना शुरू कर दिया। मित्रों के बीच भी मेरी व्यस्तता को लेकर तानें इसी नाम से गढ़े जाने लगे। राष्ट्रपति से सम्बंधित कोई भी चर्चा होती और सामने हम पड़ जाएं तो एकाध जुमले हमारी ओर उछाल ही दिए जाते।
मेरा सपना मज़ाक बन गया। था भी तो मज़ाक जैसा ही। जब राष्ट्रपति उम्मीदवार तय हुए तो बड़े भाई ने मेरे पास फोन किया कि नामांकन करवाये की नहीं?

पूछा, किसका नामांकन!
तो, राष्ट्रपति का!
फिर हम दोनों हंस दिए। घर आये तो दीदी ने कहा, राष्ट्रपति बनने का ख्वाब सो गया क्या! हमने कहा, "नहीं तो! अभी उमर कहाँ हुयी!" बोलीं, "नहीं, अगर सो गया हो तो हम फिर से जगाएं!" शायद उनके लिए इस मज़ाक में हक़ीक़त की संभावना जीवित हो! शायद उन्हें हमारे इस मजाकिया सपने में कहीं आग दिखाई दे रही हो! शायद उन्हें उम्मीद हो कि रायसीना हिल्स कभी अपना ठिकाना हो ही जाये। किस्मत को कौन जानता है। एक चाय विक्रेता जब 'किस्मतवाला' बना तो सीधे प्रधानमंत्री हो गया तो हमारी किस्मत भी कुछ तो बड़ा करवा ही सकती है।

अब मेरे मन में क्या है, मैं खुद नहीं समझ सकता। राष्ट्रपति-चुनाव को 2007 से बारीकी से देख रहा हूँ और लगातार मेरी इस पद के लिए योग्यता बजाय बढ़ने के घटती जा रही है। एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया जहाँ अब्दुल कलाम योग्यता में एक समर्पित पार्टी कार्यकर्ता प्रतिभा पाटिल से पीछे रह जाते हों, एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया जिसमें राष्ट्रपति पद सत्तारूढ़ पार्टी का सबसे वरिष्ठ नेता जब प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा सका, उसके तबके त्याग का पुरस्कार बन जाता हो, एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया जिसमें अब उम्मीदवार की जाति उसके लिए गणतंत्र के सर्वोच्च पद का आसन तैयार करती हो उसमें अब मेरे लिए सम्भावनाएं धीरे-धीरे खत्म होती लग रही हैं। मैं अब साहित्य स्वान्तः सुखाय के उद्देश्य से लिखता हूँ और अब मुझे न राजनेता बनने का शौक है और न ही फेमस होने की ही इच्छा है।।

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