Friday 9 June 2017

स्मृति जलधि तरंगाः 8

आईआईएमसी आना पता नहीं किस्मत थी या मेहनत। लेकिन यहां आने के साल भर पहले की बात करें तो आईआईएमसी का नाम तक नहीं जानते थे। विज्ञान के विद्यार्थी थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज में तीन साल जिस जद्दोजहद के साथ बीएससी कंपलीट किया था उसने साइंस में पढ़ाई आगे जारी रखने की मंशा की कमर तोड़कर रख दी थी। कुछ नयी शुरुआत करनी थी। पत्रकारिता ने इसलिए भी अपनी ओर खींचा था क्योंकि लिखने और पढ़ने की अपनी आदत और अपने शौक से हम आजीवन जुड़े रहना चाहते थे। केशव सरस्वती उच्चतर माध्यमिक विद्या मंदिर रुद्रपुर में पढ़ाई करते वक्त उस स्कूल की छात्र संसद का एक बार सूचना प्रसारण मंत्री रह चुके थे, जिसका काम था प्रतिदिन की प्रार्थना सभा में समाचार वाचन करना। पत्रकार बनने की इच्छा ने तो तभी मन में जन्म ले लिया था। लेकिन जिस पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि से हम आते हैं वहां इस तरह के सपने देखे तो जा सकते हैं, लेकिन उन्हें पूरा करने का ख्याल भी अपने दिमाग से निकाल देना होता है। वहां सीख देने वाले ज्यादातर हितैषी आपको आईआईटी, पॉलीटेक्नीक, य़ूपीटीयू की तैयारी करके जल्द से जल्द अच्छा मेकैनिक बनने का सुझाव तक ही दे पाते हैं।

खैर, अजय भाई जो कि आईआईएमसी 2015-16 बैच के छात्र भी रहे हैं, उन्हीं की प्रेरणा और कोशिशों की बदौलत आईआईएमसी में आना हुआ। आईआईएमसी पहुंचे हुए उन बहुत कम लोगों में मैं शामिल था जिन्हें इस इंट्रेंस एग्जाम को पास कर लेने की कोई खुशी नहीं थी। मेरा खुश न होने का कारण था कि इस इंट्रेंस को पार करने के बाद भी मैं वहां जा नहीं सकता। मेरे अभिभावकों को मेरा साइंस की पढ़ाई छोड़ पत्रकारिता करना पसंद नहीं था। लेकिन जहां चाह, वहां राह। बड़े भाई परमानंद शुक्ला की सहायता से जिंदगी के इस बड़े मोड़ को स्वीकार करने का अवसर मिल ही गया।

अब चूंकि मुझे आईआईएमसी के इतिहास के विषय में ज्यादा कुछ पता नहीं था इसलिए मैं इसका आंकलन नहीं कर पा रहा था कि यहां जो कुछ भी हो रहा है, या जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है वह कितना सही है, कितना गलत। पत्रकारिता का क ख ग नहीं जानने के कारण शुरुआत में मुझे यहां कुछ भी समझ नहीं आया। क्लासेज रेग्यूलर चल रही थीं, टीचर्स शायद अपना शत प्रतिशत दे रहे थे। लेकिन क्लास में कई ऐसे विद्यार्थी थे जो आईआईएमसी के इस रवैय्ये से नाखुश थे। अब चूंकि मेरे पास कोई दृढ़ आधार नहीं था, इसलिए मैं इसकी विवेचना नहीं कर सकता था। शुरुआती दौर में डीजी सर का क्लास में आना, एडीजी सर का क्लास लेना, सबकुछ प्रभावित कर रहा था। तमाम कार्यक्रम खासकर हर शुक्रवार होने वाला सेमिनार, कक्षाएं, प्रायोगिक कक्षाएं, पुस्तकालय शानदार कैंपस वातावरण सब कुछ एक अच्छी अनुभूति की तरह थी। सहपाठी भी चूंकि चुने हुए लोग थे, इसलिए सब के सब प्रतिभाशाली और व्यवहारिक थे।

पत्रकारिता के एक बड़े संस्थान की जो छवि मेरे दिमाग में थी, वह पूरी तरह से आईआईएमसी से नहीं मिलती थी। एक विमर्श और बहस का जो मंच इस संस्थान में होना चाहिए था, जिससे पत्रकारीय कौशल के साथ साथ पत्रकारीय आदर्श और सिद्धांत भी छात्रों में विकसित हो सकते थे, वो यहां नदारद था। साहित्यिक संगोष्ठियों की पूर्ण अनदेखी की गई थी। क्लास के अधिकांश छात्रों में एक स्वस्थ बहस में शामिल होने की न तो क्षमता थी और न योग्यता। अधिकांश नें विचारधाराओं के झण्डे पकड़े हुए थे। जिसके विचार किसी धारा का हाथ थामें हुए होंगे उनकी कलम पत्रकारिता के उबड़-खाबड़ रास्तों का सफर कैसे तय कर पाएगी। वो तो वहीं जाएंगे जहां उन्हें वो धारा लेकर जाएगी, और ऐसे में तो पत्रकारिता को पीछे छूटना ही है। कुछ बोलने के लिए सुनना भी बहुत जरुरी है। कुछ लिखने के लिए पढ़ना भी बहुत जरुरी है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे के बिना चल नहीं पाएंगे। यहां बहुत से लोगों नें दोनों को अलग अलग चलाने की कोशिश की है। पूर्वाग्रह और अनुचित धारणाओं नें कई लोगों के बीच व्यक्तिगत दरार पैदा कर दिया था। विचारों की लड़ाई विचारों से होनी चाहिए थी, उन लड़ाइयों के बीच व्यक्तिगत संबंधों को वैसे ही सहेजकर रखना चाहिए जैसे दांतों के बीच जीभ। बहस का मैदान और कुरुक्षेत्र दोनों को अलग रखना पड़ेगा, यही सही है। यही कारण रहा कि कॉलेज के आखिरी दिन कई लोगों के संबोधन बहुत तीखे और आहत करने वाले रहे। हमें किनसे मोहब्बत है, ये हम बताएं या न बताएं लेकिन हम किनसे नफरत करते हैं इसका ढिंढोरा पीटना मैं जरुरी नहीं समझता। इससे तनाव बढ़ता है, समाज में आनंद का तारतम्य बिगड़ता है, और वैसे भी जीवन में अनेकानेक दुख हैं, क्यों अपनी ओर से उसमें कुछ जोड़ना है।

आखिरी दिन के संबोधन में मुझे किन किन लोगों ने प्रभावित किया था, मुझे कौन लोग अच्छे लगे मैं उन लोगों का नाम लेने वाला था वहां, लेकिन उन नामों में मैं एक नाम शामिल नहीं कर सकता था क्योंकि उन दिनों उस नाम से मेरे संबंध कुछ ठीक नहीं चल रहे थे, इसलिए मैनें किसी का नाम नहीं लिया। यह बात मुझे आज तक कचोटती है। आखिर एक छोटी सी गलतफहमी की वजह से मैं उन लोगों को उनके नाम लेकर संबोधित और आभार ज्ञापित नहीं कर पाया जिन लोगों की वजह से मेरा पूरा साल जीवन का सबसे बेहतरीन साल रहा है।

बीतते समय के साथ संस्थान  की दीवारो के भी रंग बदलते रहे। कई घटनाओं ने आहत किया। एक पत्रकारीय संस्थान में ऐसी गतिविधियों की आशा नहीं थी। पत्रकारिता को लेकर जो नरम आशाएं मन में थी, चटक कर टूटने लगीं। शिक्षकों ने साल भर वही किया जो उन्हें करना था। क्लास में एथिक्स और चेंज पढ़ाने सीखाने वाले लोगों नें उसके प्रैक्टिकल के दौरान अपने दरवाजे बंद कर लिए और ऐसा करके भी उन्होंने कुछ नई सीख हमारे कोश में जोड़ दिया। कुछ लोगों का साथ वास्तव में अविस्मरणीय रहा। वही आईआईएमसी की उपलब्धि कहे जा सकते हैं। बाकी एक साल का अंत उम्मीदों का अंत नहीं है। हर जगहों पर बुरा ही हो रहा होगा, यह भी तो संभव नहीं है। और हमारे लिए कुछ करने का अगर अवसर चाहिए तो हर जगह सही भी तो नहीं होगा। कुछ सही होगा, कुछ बदलेगा और कुछ हमें बदलना होगा। इसी आशा और विश्वास के साथ इस साल के सभी साथियों को जीवन का एक वर्ष खुशनुमा बनाने के लिए बहुत शुक्रिया और आने वाले लोगों को बहुत सारी शुभकामननाएं।

प्रणाम!

Thursday 8 June 2017

स्मृति जलधि तरंगाः 7 - स्मृतिगान

स्मृति जलधि तरंगा

मेरा सबसे बड़ा दुख है कि नोएडा के आसमान में हवाई जहाज बहुत छोटा दिखाई देता है। आईआईएमसी से हवाई जहाज बहुत बड़ा दिखाई देता था। शायद इसलिए कि वहां हम आकाश में थे या फिर वहां से आकाश थोड़ा नजदीक था, यहां से दूर है। आईएमसी इसलिए भी याद आएगी। 

जिंदगी में कहीं भी रहेंगे, कुछ भी करेंगे लेकिन जब भी कभी खाली बैठे यादों के शहर में गोता लगाएंगे और उस शहर में जब आईएमसी का मोहल्ला आएगा तब तब याद करेंगे, जावेद की दुकान के सामने की वो घास जहां शाम के 7 बजे हिंदी पत्रकारिता के कुछ नए चेहरे एक वृत्त की शक्ल में बैठे हैं और उनमें अनुराग नाम का वो शख्स बड़ी मीठी आवाज में गीत सुना रहा है, उसके बाद विवेक नाम का वो लड़का मुझे अपनी कविता सुनाने के लिए जिद कर रहा है।  तब याद करेंगे कि टंकण के प्रैक्टिकल में कोई मुझसे पूछ रहा है कि लिखने के लिए कौन सा कीपैड दबाएं। तब याद करेंगे कि महिपाल की कैंटीन के बाहर सीढ़ियों पर कोई अमण बराड़ लोगों की मिमिक्री कर रहा है और सब ठठा कर हंस रहे हैं। तब याद करेंगे कि पांच लोग योगा रुम में इकट्ठे हो रहे हैं, क्योंकि उन्हें बोलिए डिस्कशन शुरु करना है। तब याद करेंगे कि दो बज गए और आज राजेंद्र चुघ की क्लास है, जल्दी पहुंचना है क्योंकि उनकी क्लास में अगर आप लेट हैं तो आईएमसॉरी य़ू आर नॉट फिट फॉर रेडियो। तब याद करेंगे कि अगली क्लास देवेश किशोर की है सो निकल लो नहीं तो तीन घंटे पको। तब याद करेंगे क्लास के दाएं से तीसरे रो की पीछे की सीट पर बैठे हम सोने की कोशिश कर रहे हैं, शताक्षी सोने नहीं दे रही, और देवेश किशोर हमारी ओर देखकर हमें डांटे जा रहे हैं। हम याद करेंगे सुभाष सेतिया की क्लास में पूरा क्लास खफा न्यूज ग्रुप पर जुट गया है। तब याद करेंगे बैडमिंटन कोर्ट में इस गेम के बाद अपना नंबर आ सकता है। तब याद करेंगे कि साढ़े सात बजे लाइब्रेरी से निकलने के बाद ब्रह्मपुत्रा चाय पीने जाना है। तब याद करेंगे लैब जर्नल की क्लास में अटेंडेंस सीट लेकर कृष्णा सर मुझे ढूंढ रहे हैं। तब याद करेंगे कि बॉलीवाल ग्राउंड में क्रिकेट चल रहा है, और हम आईएमसी के मेन गेट के पास वाले छोटे से पार्क में लेटकर किताब पढ़ रहे हैं। तब याद करेंगे कि कई दिनों से हम खाली ही नहीं हो पा रहे हैं कि अपनी नई लिखी कविताओं को अपनी डायरी पर उतार सकें। तब याद करेंगे कि कोर्ट में बैडमिंटन चल रहा है और हम अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। तब याद करेंगे कि आज भी 10 बज गए और हम अभी कैंपस में हैं। तब याद करेंगे कि कैमरा इश्यू करवा लिया है अब पीटूसी कर रहे हैं। तब याद करेंगे कि आज शुक्रवार है और आज बोलिए करवाना है। और याद करेंगे ऐसी ही अनेक समृति जलधि तरंगों को जिसने जीवन में पहली बार एक साथ इतने सारे हंसने के मौके दिए। तब याद करेंगे ऐसी स्मृति चंद्र किरणों को जिनकी पृष्ठभूमि में अंधेरा तो था लेकिन कुछ सीख पाने की रोशनी होने का आश्वासन भी था। 

आईएमसी का जब भी जिक्र होगा, इतनी चीजें तो एक बार में ही दिमाग से हवा के झोकों की तरह गुजर जाएंगी, जिसके बाद आंखों की सीमाएं एक जलप्रलय को थामने की भरपूर कोशिश करेंगी और होठों के भूगोल पर एक हल्की सी हलचल होगी। तब यह खुमारी सामने खड़े उस नए चेहरे के यह कहते ही टूट जाया करेगी कि- अकेले-अकेले क्यों मुस्कुरा रहे हैं?'

चलिए, आखिर में स्मृतियों के राष्ट्र को एक गीत सौंप जाते हैं। एक स्मृति गीत..जिसमें सब कुछ समाहित करना उतना ही मुश्किल है जितना इन स्मृतियों का फिर से हकीकत बनना.


स्मृति गान

स्मरण-प्रतिक्षण मन में गूंजित,
उर एकांत समाए।
कल-कल धार समय की बहती,
ठहरे ना ठहराए।
गुरुजन-हितजन-प्रियजन-नयनन
ओझल, बोझिल जीवन।
बहु क्षण हर्षित – बहु संघर्षित
बहु स्नेहिल अनबन।
दहिया-गंगा-इम्यूनोलॉजी
कॉलेज कैंटीन।
पांव निकलते, चलते-चलते, रुकते
इन पर प्रतिदिन।
मन चाहे बिसराए,
पर कुछ भूल न पाए।
आईएमसी सतरंगा।
झर-झर तट पर मन के लहरे


समृति जलधि तरंगा।

स्मृति जलधि तरंगाः 6 - अच्छा चलते हैं..

अब जाना तो होगा ही न
आईआईएमसी में हमने हर दिन दो-दो दिन जिए हैं और ये हर दिन कभी न मिट सकने वाली स्मृतियों के शिलालेख हैं। आईआईएमसी और जेएनयू में बिताए एक एक पल पिछले एक महीने से न ठीक से सोने दे रहे हैं और न जगने ही दे रहे हैं। उठते-बैठते कभी महिपाल जी की कैंटीन में लंच करते समूचा क्लास याद आ जाता तो कभी ब्रह्मपुत्रा के यादव जी की चाय। ठीक-ठाक मौसम हो तो ब्रह्मपुत्र से आगे बढ़कर जेएनयू की सड़कें नापना भी एक अद्वितीय अनुभव था। इन सबका आधार स्तंभ था वहां का वातावरण। दिल्ली जैसै शहर में इस तरह के वातावरण की कभी कल्पना नहीं थी।

अपना कैंपस भी तो किसी बेहतरीन उद्यान से कम नहीं था। चारों तरफ वृक्षों से भरा पड़ा परिसर अरावली की शिलाओं की शिल्पकारी से खूबसूरती के उच्चतम स्तर को भी पीछे छोड़ देता था। मुझे याद है अगस्त,सितंबर और अक्टूबर का वह दृश्य जब कक्षाएं खत्म होने के बाद हम सभी जावेद की दुकान के सामने घासों पर आकर बैठ जाते थे बिना किसी सूचना के और फिर तमाम बातों के बीच डॉ अनुराग अनुभव की कविताओं का रस बरस पड़ता था। जब हम भी अपनी कठिन भाषा वाली पंक्तियां पढ़ देते थे और स्नेहवश सभी तालियों से उसकी इज्जत रख लेते थे। बाद में इन महफिलों पर ठंड की ओस का असर पड़ने लगा और नवंबर आते- आते इस सभा का अस्तित्व लगभग खत्म ही हो गया।

आशंकाएं घुमड़ती थीं दिमाग में। आईएमसी छोड़ने के बाद कैसे जिएंगे हम लोग। फिर भी कल्पना के पंख वहां तक उड़कर जा नहीं पाते थे जहां से हम यह देख सकें कि इतना शानदार वातावरण छोड़ने के बाद का दृश्य क्या होगा। बस कैंपस छोड़ कहीं जाने का मन नहीं होता।

कुछ स्मृतियां हैं ..
शुरुआत करते हैं 15 अगस्त से। संस्थान में आए महज 10 दिन हुए थे। किसी से कोई खास परिचय था नहीं। 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस का कार्यक्रम संस्थान में मनाया जाना था। क्लास में 15 और 17 अगस्त के कार्यक्रमों की लिस्ट तैयार की जा रही थी। आशुतोष के नेतृत्व में रेणु का नाटक पंचलाइट के मंचन का कार्यक्रम बना। मैंने भी अपना नाम दिया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने की उत्सुकता बचपन से रहती थी। उस समय हम द्वारका से आते थे। इस वजह से नाटक की तैयारियों के लिए उपलब्ध नहीं रह पाते थे। सो नाटक से पत्ता अपने आप कट गया। 14 अगस्त की शाम एंकरिंग के लिए जब मंच में ऑडिशन चल रहा था तब पता चला कि कल के कार्यक्रम में कविता भी पढ़ सकते हैं। मैंने डीजी सर को अपनी कुछ कविताएं पढ़ाईं जो उस वक्त ऑडिटोरियम में मौजूद थे। कविताएं कुछ निराशा भरी तीं जिस वजह से उन्होंने कह दिया कि स्वतंत्रता दिवस है तो कुछ जश्न टाइप कविताएं लाओ। ये रोने धोने वाली कविताएं रहने दो। हम घर आए और कुछ नई कविताएं लिखकर कुछ पुरानी इकट्ठी कर कल हर हाल में सुनाने का निश्चय किया।  कार्यक्रम लिस्ट में मेरा नाम था तो मुझे मंच पर बुलाया भी गया। मैनें कई मुक्तक पढ़े और एक कविता पढ़ी। लोगों का इतना समर्थन मिला कि उत्साह और आनंद नें सीमाएं तोड़ दीं। कई लोग बाहर मिलकर तारीफ करते। उस दिन का वह कार्यक्रम शुरुआत से लेकर अंत तक इतना जबर्दस्त था कि आज भी याद करते ही होठों पर हंसी तैर जाती है। खासकर अंत का वह शानदार गीत जिस पर पूरा ऑडिटोरियम मंच पर आ गया और झूमने लगा।

17 अगस्त को संस्थान का 51 वां स्थापना दिवस समारोह था। दो दिन पहले ही हुए एक कार्यक्रम में मैंने एक ऐसी कविता पढ़ दी थी जो लोगों को तो खूब पसंद आई लेकिन प्रशासन नाराज हो गया था। इसलिए जब इस कार्यक्रम में मैंने कविता पढ़ने का अनुरोध किया तब मुझसे देशभक्ति नहीं बल्कि संस्थान पर कुछ लिखकर सुनाने के लिए कहा गया। मैनें न तो हां कहा और न ही ना। क्योंकि मैं लिखने की गारंटी नहीं दे सकता था। द्वारका जाने के लिए हमें मुनीरका से बस पकड़नी होती थी, सो वहां तक तो पैदल जाना होता था। उस दिन मैं पैदल नहीं गया बल्कि उस दिन मैंने हिंदी शब्दों के नगर में अपनी कविता के शिल्प के लिए छंदों के रथ की यात्रा की थी। रास्ते भर में एक प्यारा सा गीत तैयार था। जिसकी पहली दो पंक्ति थी,
बाग संचार का और भी खिल उठा, आईएमसी जब इक बागबां बन गया।
साल इक्यावन से चलता हुआ ये सफर, देखते-देखते कारवां बन गया
17 अगस्त को हमें इलाहाबाद की ओर कूच करना था। इसलिए पूरा कार्यक्रम देखने का समय भी नहीं था हमारे पास। डेवलपमेंट जर्नलिज्म के विदेशी छात्रों के कार्यक्रम के बाद मेरा नंबर आया। प्रस्तुति ठीक-ठाक रही लेकिन प्रतिक्रियाएं सुनने के लिए हम वहां मौजूद नहीं थे अगले दिन।


4 सितंबर को जब इलाहाबाद से फिर दिल्ली लौटे तो यहां हिंदी पखवाड़े के विभिन्न आयोजन गतिशील थे। दुर्भाग्य था कि अधिकांश प्रतियोगिताएं निकल चुकी थीं और मेरे पास पछताने के अलावा कुछ भी नहीं था। 11 दिन की कक्षाएं छूटी थीं हमसे। इस बीच निबंध प्रतियोगिता और वाद-विवाद प्रतियोगिता जैसी प्रतियोगिताएं भी बीत चुकी थीं।यही वो दौर था जब लोग एक दूसरे से घुल मिल रहे थे। इसी दौर में एक और कार्यक्रम ने दस्तक दी। मौका था हिंदी पखवाड़े के समापन और पिछले वर्ष के छात्रों के दीक्षांत समारोह का। एंकरिंग के लिए हुए ऑडिशन में मुझे चुन लिया गया। साथ में रीतिका को भी एंकरिंग करनी थी। और दो और एंकरों में जसीम उल हक और हिमाक्षी शामिल थे। हमने तय किया कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों की एंकरिंग जसीम और हिमाक्षी करेंगे और हिंदी पखवाड़े के कार्यक्रमों का संचालन हम और रीतिका कर लेंगे। तय कार्यक्रम के हिसाब से काम शुरु हुआ. कार्यक्रम थोड़ा सा लेट शुरु हुआ था, इसलिए जल्दबाजी भी रही। सब कुछ ठीक चल रहा था तब तक, जब तक बहुत होशियारी दिखाने के चक्कर में हमनें वह जोक नहीं सुना दिया था जिसका जिक्र मैं यहां बिल्कुल नहीं करुंगा क्योंकि वह याद रखने वाली चीज है ही नहीं।


तब अक्टूबर की तारीखें दौड़ रही थीं। सब एक दूसरे को नाम से जानने लगे थे। अलग-अलग बिखरे हुए लोग अपने अपने ग्रुप की  संरचना संवारने में व्यस्त थे। बचपन से लेकर आज तक मेरी स्थिति यही थी कि कोई ऐसी सीमा नहीं बांधी थी कि जिसकी परिधि के अंदर के लोग मेरे सबसे खास हों। यहां भी अब तक वही हाल था। इस दौरान जो सबसे बेहतरीन घटना घटी थी, वो एक स्किट कंपीटिशन में हमारा प्रतिभाग करना था। शताक्षी को मेरे लेखन पर इतना विश्वास हो गया था कि उसने मुझे स्किट लिखने के लिए बोल दिया जिसकी विषयवस्तु भ्रष्टाचार के समाधानों और उसके लिए जागरुकता के इर्द गिर्द हो। मुझे खुद पर इतना आत्मविश्वास कभी नहीं आया था कि मैं स्किट भी लिख सकता हूं। शताक्षी और साधना के बार बार कहने पर मैं तैयार तो हो गया लेकिन मुझे पता नहीं था कि मैं क्या और कैसे लिखूंगा। फिर भी कोशिश की, और ढाई घंटे में ही स्किट का लगभग 70 प्रतिशत लिख डाला। वो स्किट आज भी उसी हालत में वहीं तक रुकी पड़ी है। उसके आगे नहीं बढ़ पायी। उसका कारण था समय का अभाव। क्योंकि स्किट की स्क्रिप्ट तय तारीख तक हर हाल में इंडियन ऑयल के ऑफिस में भेजनी थी।इस लिए इंटरनेट से एक इंग्लिश स्किट उठाकर साधना ने उन्हें मेल कर दिया। बाद में शताक्षी ने उसी स्किट का हिंदी अनुवाद कर दिया जिसमें कुछ और संवाद जोड़कर हमने उसमें थोड़ा और सुधार कर दिया। अब स्क्रिप्ट तो तैयार थी लेकिन एक्टर नहीं मिल रहे थे। सब दीवाली की छुट्टी में घर जाने की तैयारी में थे। जाना तो हमें भी था, लेकिन हम लोग स्किट कंपीटिशन में हिस्सा लेने का मन बना चुके थे। जल्दी ही वो समय भी आ गया जब हमें कंपटीशन के लिए इंडियन ऑयल के ऑफिस जाना था। कंपीटिशन में केवल तीन टीमें थीं। पहली एमिटी यूनीवर्सिटी की टीम थी दूसरा कोई थिएटर ग्रुप था और तीसरा अस्तित्व ग्रुप यानी कि हम लोगों का। दूसरे नंबर पर हमें परफॉर्म करने के लिए बुलाया गया था। मैं इसमें उद्घोषक के किरदार में था। इसके अलावा श्रेयसा भारत माता के, प्रिया नेगी, विवेक, आशुतोष, अमनदीप, प्रिंस, शुभम, खुश्बू और साधना कई किरदारों में थे। कार्यक्रम के अंत में हमें फर्स्ट रनर अप चुना गया। हमारी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। एक ट्रॉफी हमारे हाथों में थी और 50 हजार रुपए की पुरस्कार राशि भी। हम चहकते हुए संस्थान में आए। तब तक सबको खबर मिल चुकी थी। सब खुश थे। डीजी सर के ऑफिस में ट्रॉफी, हेमंत जोशी, सुरभि दहिया और स्वयं डीजी सर के साथ फोटो सेशन भी हुआ। यह जीत मैनें मेरी ओर से शताक्षी को समर्पित कर दी थी क्योंकि कहीं न कहीं उसकी ही कोशिशों का नतीजा था जो इस तरह की उपलब्धि हमारे हाथ में थी। नहीं तो कितनी बार हम लोग प्रोग्राम से क्विट करने के बारे में भी सोच चुके थे।

स्मृतियों के पृष्ठ पर जेएनयू की सड़कों पर उस नाइट आउट की भी कहानी दर्ज है जो हम लोगों का पहला नाइट आउट था। बिना किसी पूर्वनियोजित कार्यक्रम के हम लोग गंगा ढाबे से एक सीमित परिधि वाले अनिश्चित यात्रा की ओर कूच करते हैं। इस कारवां में शामिल लोग हैं विवेक, शताक्षी, दया, पार्थ, अर्चिता और स्तुति। रात भर हम लोग जेएनयू की खाली लेकिन गुलजार सड़कों पर लगातार चलते हैं। फिर कहीं घासों पर बैठकर अंताक्षरी खेलते हैं, तो कभी कोई और खेल। अंतिम चरण में हम पहुंचते हैं पीएसआर यानी कि पार्थ सारथि रॉक्स। तब तक सुबह हो चुकी होती है। नवंबर का महीना, तेज ठंडी हवाएं और पीएसआर की पहाड़ी। बस थोड़ी सी ठंड कम होती तो स्वर्गानुभूति में कोई कमी नहीं होती। दिन निकल आने के बाद हमने चलनेका प्रोग्राम बनाया। शताक्षी का मन था कि यहां से सनराइज देखकर चलेंगे। लेकिन कोई रुकने को तैयार नहीं था। अंत में उसे अपनी इस इच्छा को मारना पड़ा और काम यहीं गड़बड़ हो गया।

स्मृति जलधि तरंगा: ..तो इसलिए याद आएगा आईआईएमसी

बस एक ख्वाबगाह और कुछ नहीः तथाकथित राजा राममोहन राय कक्ष (हिंदी पत्रकारिता कक्ष)
आईआईएमसी में हिंदी पत्रकारिता की कक्षा ही अपना सबकुछ थी। इस क्लास में होना मतलब किसी तीर्थ में होना, किसी खूबसूरत से पर्यटन स्थल में होना, किसी सभा में होना, किसी परिवार में होना, किसी देश में होना मतलब किसी नई ही दुनिया में होना। कहीं भी बैठ जाओ,पूरा क्लास आपके कॉन्टैक्ट में रहेगा। कुछ कोने इस क्लास के आरक्षित थे, जिन पर साल भर उस सीट के मालिक के अलावा कोई और दृष्टि भी डाल दे तो मालिक की दृष्टि अमरीश पुरी वाली हो जाती थी। जैसे तीसरी पंक्ति की आख़री बेंच से 2 बेंच पहले की सीट शताक्षी अधिग्रहीत थी। उस पर वो किसी और को देख ले तो आकाश में उतने तारे नहीं जितने उसके चेहरे पर एक्सप्रेशंस बनते। बाएं से चौथी रो की आखिरी से ठीक पहले वाली सीट पर बैठते थे रीतिका-रोहिन। हालाँकि सीट पर इनका दावा कभी शताक्षी की तरह खतरनाक स्तर पर मजबूत नहीं था। पार्थ अगली सीट पर बैठता था अक्सर।
आईआईएमसी में हिंदी पत्रकारिता की कक्षा ही अपना सबकुछ थी

चौथे ही रो की पहली सीट कृष्णा पांडेय और नीरज यादव के अखंड जूनियर-सीनियर के रिश्ते का गवाह रही। इनके ठीक पीछे वाली सीट पर अभिषेक बैठा करता था। शताक्षी की सीट की अगली सीट पर सुल्तान भाई बैठते थे। अमन बीड़ी तो पीछे की किसी भी सीट पर बैठ जाता जहां वो आराम से सो सके और कोई देख न पाए। नितीश की सीट थी बाएं से पहली रो की पहली सीट। और अपने लवली किशन बाबू दूसरी पँक्ति की दूसरी सीट के बाशिंदे थे। कुछ लोगों की सीट तो निश्टित नहीं थी लेकिन इनके साथ कौन बैठेगा वो तय था। मसलन आकांक्षा-प्राणेश अक्सर सबसे दाहिनी ओर की तीसरी सीट पर विराजित होते। तसलीम और फ़जील दाहिनी ओर की सबसे आखिरी सीट पर। पल्लवी और नीलेश दायें से दूसरी पंक्ति की तीसरी सीट पर या कहीं और भी। कुछ लोगों की सीट तो निश्चित नहीं थी लेकिन उनका इलाका निश्चित था। आशुतोष, सुनील, अभिनव, अमन ये वो लोग थे जो कभी अगली सीट पर बैठने की इच्छा नहीं रखते थे।

क्लास में सामने 3 कुर्सियां लगी होती थीं। किसी विशिष्ट अतिथि वक्ता के आगमन पर अतिथिदेव बीच वाली कुर्सी पर बैठते जबकि उनकी दायीं ओर हेमंत जोशी सर तथा बायीं ओर कृष्ण सर बैठते थे।क्लासरुम में एक टीवी भी था। उस पर कार्यक्रमों का प्रसारण एक दो बार ही संभव हो सका उसके बाद वह भी सरकारी महकमाजन्य अनिश्चितकालीन बीमारी से ग्रस्त हो गया और फिर कभी कुछ नहीं बोला। डेस्कटाप इज्जत बचाने भर को चल जाता था और वाई-फाई... क्लास में वाई-फाई का होना हम लोगों का एक भ्रम था। इंटरनेट कनेक्शन एडीपीआर के क्लासरुम से आयात किया जाता था।क्लास में एक घड़ी थी जो बायीं ओर की दीवार पर लटकी होती थी।  देवेश किशोर सुभाष सेतिया जैसे विद्वानों के कक्षा में पधारने से उसकी टीआरपी बढ़ जाती थी। क्लास एकदम खुला धर्मशाला थी। जब मन करे आओ जब मन करे जाओ अगर वो क्लास शिशिर सिंहा की न हो तो।

यहां मेरी आत्मा हमेशा भटकेगी
मैं लाइब्रेरी के लिए आईआईएमसी आता था और थोड़े बहुत क्लास अटेंड कर लिया करता था। अगर मैं ऐसा कहता हूं तो भावनात्मक तौर पर इसमें कुछ भी झूठ नहीं है। सुबह 7 बजे लाइब्रेरी खुलती तो शाम साढ़े सात बजे बंद हो जाती। 10 बजे से लेकर 5 बजे तक तो क्लास ही चलता रहता था। सुबह के 3 घंटे और शाम के ढाई घंटे लाइब्रेरी के लिए बचते थे। शुरुआत में जब हम द्वारका से आते तो सात या फिर साढ़े सात बजे वहां से निकल लेते थे। साढ़े 8 या फिर 9 बजे तक कैंपस पहुंच जाते थे। 10 बजे तक का समय लाइब्रेरी में कटता फिर क्लास में चले जाते। शाम को 5 बजे जब क्लास ओवर होती, फिर लाइब्रेरी में साढ़े सात तक टिके रहते।
लाइब्रेरी में बैठे हुए अक्सर मैं अपने पड़ोसी से कह देता कि यहां से जाने के बाद मैं लाइब्रेरी को बेइंतहां मिस करुंगा

लाइब्रेरी में जाहिर तौर पर किताबें कम ही पढ़ी जाती थीं हमसे। उसके लिए हम लाइब्रेरी से बाहर कुछ उचित निश्चित स्थानों का प्रयोग करते थे। लाइब्रेरी में तो बस वाई-फाई की सेवा का समुचित दोहन कार्यक्रम चलता। लाइब्रेरी के सिस्टम पर बैठकर न्यूज पढ़ना, ब्लॉग्स पढ़ना, यू ट्यूब पर प्राइम टाइम या फिर अन्य समाचारों आदि के वीडियो देखना प्रतिदिन का काम था। एक दिन आश मोहम्मद भैया ने भी कह ही दिया था कि राघवेंद्र को कभी हम आफलाइन पढ़ते नहीं देखे हैं। बात तो मजाक की ही थी लेकिन आंशिक सत्यता लिए हुए थी। आफलाइन पढ़ाई हम लाइब्रेरी के पत्रिका वाले सेक्शन में करते थे। वहां भी केवल पत्रिकाएं पढ़ते। लाइब्रेरी का यह इलाका रिसेप्शन से दिखाई नहीं देता था। किनारे था, शांत था और मेरे सबसे पसंदीदा स्थलों में से एक था। लाइब्रेरी में बैठे हुए अक्सर मैं अपने पड़ोसी से कह देता कि यहां से जाने के बाद मैं लाइब्रेरी को बेइंतहां मिस करुंगा।

आईआईएमसी में रहने के दरमियान कहीं से भी थक हारकर, किसी से नाराज होकर, किसी से छिपने के लिए एकमात्र आश्रयस्थल थी लाइब्रेरी। किताबों से भरी आलमारियों के बीच अच्छी किताब की आशा में दौड़ती भागती नजरें, डेस्कटाप पर बैठकर प्राइम टाइम देखना, पत्रिका वाले सेक्शन में हर महीने नयी पत्रिकाओं को ढूंढने की बेचैनी, लाइब्रेरी के प्राथमिक हिस्से के रीडिंग हॉल में बैठकर अखबार पढ़ने के साथ-साथ वाइ-फाइ से फेसबुक और वाट्सएप चलाने की आदत, ये सब मिलकर लाइब्रेरी से बिछड़ने के दुख और उसकी यादों का पूरा हिमालय तैयार कर रहीं थीं। शायद उस लाइब्रेरी में जाने का मौका जीवन में कई बार मिल जाए लेकिन इन एक सालों में उस खूबसूरत लाइब्रेरी को अपना कहने का जो सुख था, जो सौभाग्य था वो शायद अब मिलने से रहा और ये बहुत पीड़ादायक है।

अखिल भारतीय शुक्ला महासंघ
शुक्ल महासंघ की एकता के मापदंड से कैंपस के अन्य संगठनों की एकता तौली जाती है

शुक्ला महासंघ आईआईएमसी 2016-17 बैच में आये तीन शुक्लाओँ का देशव्यापी संगठन है।इस महासंघ के तीन ही सदस्य हैं,अभिषेक शुक्ल,सुरभि शुक्ला और राघवेंद्र शुक्ल। इस संगठन का काम शुक्ल समाज पर या फिर शुक्ल महासंघ के किसी भी सदस्य पर किसी भी प्रकार के हिंसक अहिंसक नस्लीय शारीरिक मानसिक भौगोलिक ऐतिहासिक व्यक्तिगत समाजगत सार्वजनिक टिप्पणी करने वाले की सख़्त मज़म्मत या कड़ी निंदा या कड़ी भर्त्सना इन तीनों में से एक या फिर तीनों करना है। शुक्ल महासंघ की एकता के मापदंड से कैंपस के अन्य संगठनों की एकता तौली जाती है। इस संगठन का गठन 2016 में हुआ था और इसके विखंडन की कोई संभावना नहीं है।अब इसके लिए भले निलेशवा ज़िन्दगी भर जलता रहे।

अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा
शुक्ला महासंघ के समानांतर एक अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा  भी इस साल अस्तित्व में आया।विख्यात भूसाभरक नीलेश मिश्र इस महासभा के परम अपमानित अध्यक्ष हैं।इसका कार्य भी यही है कि बस जहाँ मौक़ा मिले कड़ी निंदा कर डालो।इस महासंघ ने तो अपने ही एक अहम् सदस्य पर संघ द्रोह का आरोप लगाकर उसका हुक्का पानी बन्द करा दिया था।और जिस सदस्य के साथ ऐसा हुआ उसका नाम अभिषेक शुक्ल है जो शुक्ल महासंघ का सदस्य भी है।अभिषेक पर बिना संघ की अनुमति के अवैध यादव संगठन से हाथ मिलाने का आरोप है। इस संगठन के अन्य मुख्य सदस्यों में हैं - शशांक त्रिवेदी,गौरव प्रभात पांडेय.

खफा न्यूजः बहोत जरुरी है
ख़फ़ा न्यूज़ आईआईएमसी 2016-17 बैच के हिंदी पत्रकारिता के विद्यार्थियों की अनुपम खोज है। 'सुना है मेरा दोस्त मुझसे ख़फ़ा है' के कृष्णा पांडेय के अद्वितीय शेर से निकला यह न्यूज़ चैनल डिजिटलीकरण का अगला स्टेप है।इस न्यूज़ चैनल का दर्शक वर्ग एक विशेष व्हाट्स एप्प ग्रुप का सदस्य समूह है।इस न्यूज़ चैनल पर प्रसारित समस्त समाचार तथ्य और जानकारियां वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं रखते।गम्भीरता से इनका कोई लेना देना नहीं है।बकैती इस न्यूज़ चैनल की स्टाइल शीट का आधार स्तम्भ है।यहां कोई भी काम की बात करने वाला व्यक्ति बड़ी ही बेज़्ज़ती के साथ ग्रुप से खदेड़ दिया जाता है। 13 अक्टूबर 2016 को हिंदी पत्रकारिता की कक्षा में इस महाग्रुप का निर्माण किया था जिसके संस्थापक सदस्य के तौर पर हमारे साथ थीं पल्लवी कुमारी। इस ग्रुप का प्रयोग खासकर उन कक्षाओं में अधिक किया जाता था जो देवेश किशोर टाइप कक्षाएं होती थीं। आ0 श्री ( सुभाष सेतिया, देवेश किशोर, राजेंद्र चुघ) सर जैसे महापुरुषों का यह न्यूज़ ग्रुप बहुत आभारी है जिनकी क्लास में इसकी टीआरपी उच्चतम स्तर पर होती थी।
सुना है मेरा दोस्त मुझसे ख़फ़ा है

इस न्यूज़ चैनल की रिपोर्टिंग रोज नहीं होती थी। कभी कभार होती थी। पांच या छः सुर्खियों का इसका एक बुलेटिन होता था। कभी कभार एक रिपोर्ट की शक्ल में केवल एक ही खबर प्रस्तुत की जाती थी। इस न्यूज चैनल के प्रमुख प्रसारणों में कुख्यात कलमचोर सुनील आनंद का पर्दाफाश, विज्ञान भवन की सामूहिक बेइज्जती पर खास रिपोर्ट, प्रथम सेमेस्टर की परीक्षा से पहले क्लास के सीआर विवेक कुमार के कक्षा के नाम दिए गए संदेश का प्रसारण, परीक्षा से पूर्व तैयारियों के मद्देनजर रिपोर्टिंग आदि काफी लोकप्रिय रहे। दीवाली की छुट्टियों में जब पूरी क्लास संस्थान आने के बाद पहली बार घर गई थी, ऐसे में कुछ लोगों के घरेलू खफा समाचार भी काफी दिलचस्प रहे थे। इस रिपोर्टिंग में मुख्य रुप से प्राणेश तिवारी और दया सागर शामिल रहे।
कुछ खफा समाचारों की बानगी

छठ की छुट्टियां खत्म होने के बाद 6 नवंबर 2016 को प्रकाशित खबर

खफ़ा ब्रेकिंग न्यूज़
Indian habitat centre पर हिंदी पत्रकारिता के दोनों सीआरों के बीच विचारधारा को लेकर हुयी बहस। खुशबू ने विवेक को बताया संघी,जवाब में मिला वामपंथी होने का तमगा।

हिंदी पत्रकारिता के सीआर विवेक का बयान:'इस लोकतंत्र में सांस लेना हो रहा मुश्किल'। कहा-'दिल्ली में भारी धुंध आपातकाल की आहट।

jnu परिसर में सरेआम नवजोत सिंह सिद्धू जैसी हरकतें करते हुए पाये गए अमण बराड़। गरीबों के सिद्धू उपाधि से किया गया अपमानित। ठोको ताली!

10 दिन के लम्बे अवकाश के बाद कल खुलेगा कॉलेज।छात्रों में दुःख की लहर।पांच-पांच असाइनमेंटासुर घात लगाकर बैठे।

विशेष सूचना: छठ महापर्व के क्षेत्र में आने वाले समस्त छात्रों को सूचित किया जाता है,कि छठ पूजा के नए विधान के अनुसार छठ पर्व के विविध पकवान खफ़ा न्यूज़ के सभी सदस्यों को अर्पित न करने पर पूजा अधूरी मानी जायेगी।अतः खफ़ा न्यूज़ की धारा 6(ठ) के अनुसार उन लोगों को iimc में प्रवेश की अनुमति नहीं है,जो ठेकुआ आदि पकवान के बिना परिसर में पधारने की फ़िराक(नुक्ता पर जरूर ध्यान दें) में हैं।


12 नवंबर की खबर, जिसमें कलम डकैत गिरोह का पर्दाफाश किया गया था
कलम डकैतों का हुआ पर्दाफाश

ब्यूरो रिपोर्ट:खफ़ा न्यूज़ 
भारतीय जनसंचार संस्थान में सक्रिय कुख्यात कलम डकैत गिरोह का आज देर शाम पर्दाफाश हो गया।डॉ भीमराव अंबेडकर छात्रावास के रूम नं0 12 में रहने वाले शातिर शुभम और सुनील नाम के दो शख़्स हिंदी पत्रकारिता की कक्षा में पत्रकारों की कलमों के लिए आतंक का पर्याय बन चुके थे।आज देर शाम खफ़ा न्यूज़ से जुड़े एक पत्रकार की 3सरी कलम पर हाथ डालने के दौरान उनकी काली करतूतों का भंडाफोड़ हो गया।दोनों शातिर कलम चोरों से पूरा पत्रकारिता महकमा खौफ़ खाता था।भंडाफोड़ होने के बाद शुभम ने कबूल किया कि उसने व उसके साथी सुनील ने संस्थान के छात्रों के कलमों की डकैती कर खुद अपनी दुकान खोलने का प्लान बनाया था,जिससे वो एक दिन क(रोड)पति बनते।दोनों कुख्यात अपराधी लोगों की पॉकिट से कलम छीनकर भागने में सिद्धहस्त थे।खबर मिली है कि छिनी गयी कलमों से डकैत one liner भी लिखा करते थे।कलम डकैतों का पर्दाफाश होने पर पीड़ितों ने ख़ुशी व्यक्त की है जबकि संसथान के एक छात्र ने उन पर फेसबुक पर एक स्टेटस लिखने की डिजिटल धमकी भी दी है।संस्थान के अन्य छात्रों को आगाह किया जाता है कि कलम डकैतों का पर्दाफाश होने के बाद भी अभी उन्हें पकड़ा नहीं जा सका है,इसलिए अपनी कलम की सुरक्षा के लिए निम्न कदम उठायें-
1.सामने के पॉकिट में कलम कभी न रखें।
2.कलम को अपने बैग की सबसे तंग थैली में रखें।
3.कलम के उपयोग के उपरान्त उसकी रिफिल निकाल दें।
आपकी सतर्कता ही आपके कलम या फिर आपके सपनों के सर कलम होने से बचा सकती है।
आज का विचार
"बेइज़्ज़ती के दो नंबर से इज़्ज़त के ज़ीरो नंबर अच्छे हैं।"
-- श्री विवेक कुमार
सी आर,हिंदी पत्रकारिता
समाचार समाप्त हुए...नमस्कार


विज्ञान भवन में प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में जब अंदर नहीं घुसने दियाः 17 नवंबर की रिपोर्ट

अति ख़फ़ा न्यूज़

मंगलवार की देर शाम से ही मन्थन-चिंतन का दौर शुरू हो चूका था।कल कौन कपड़ा पहिन के जायेंगे..टाइप प्रश्न iimc के वातावरण में मोदित (गुंजित,दूनों में कौनों अंतर नहीं,)हो रहे थे।कल मोदीजी के साक्षात् दर्शन जो होने वाले थे।कुछ लोगों ने वहां पूछने के लिए सवालों की गठरी बांध ली थी,कुछ लोग इन तमन्नाओं के साथ उछल रहे थे कि मोदीजी से मिलतै फलां जिला के फला मोहल्ले के फला गली के फला टोली के टोली अध्यक्ष का पद मांग लेंगे..!कुछ लोग ताला-चाभी भी लेके चले थे!लेकिन ससुरा..सर्जिकल स्ट्राइक हो गया अरमानों पर।विज्ञान भवन के गेट पर बड़े अवैज्ञानिक तरीके से फज़ीहत हुयी।
iimc से निकलते समय सब 10-10 के सिक्के की तरह खनक रहे थे,वहां पहुंचतै 1000 के नोट जैसे मुरझा गए बिचारे।
अंदर घुसने से पहिलहीं बहिष्कृत हो गए लोगों को फुसलाने के लिए जब DG लेवल पर प्रयास शुरू हुआ,तब पता चला कि ससुरा iimc तो गहरे आर्थिक संकट से गुज़र रहा है।ई फ़ज़ीहत का दूसरा राष्ट्रीय कार्यक्रम था।
यह सिलसिला यहीं नहीं थमा।बड़े बेआबरू होकर उस कूचे से निकले जत्थों में से एक जत्था नेशनल म्यूजियम आइसक्रीम की कीमत के साथ निकल पड़ा,वहीं दूसरा जत्था वापस लौटने की ओर।
jnu गेट पर बस रोककर दुसरे जत्थे को उतारकर फज़ीहत का तीसरा कार्यक्रम संपन्न किया गया।
एक तरफ चाय वाले ने धोखा दिया तो दूसरी तरफ रोहिन को उनके चाय ने भी धोखा दे दिया।दहिया ढाबा पर रोहिन का चायाभिषेक फज़ीहत का चौथा संस्करण था।
फज़ीहत की पंचायत तो तब हो गयी जब रीतिका के सामने ही अंकित भैया ने शाहरुख़ खान को चूहा जैसा बोल दिया।
और भी तमाम छोटे-बड़े,ज्ञात-अज्ञात,सुने-अनसुने,देखे-अनदेखे फज़ीहतों के साथ बीता यह दिन।फज़ीहतों की संख्या देखते हुए 16 नवंबर को राष्ट्रीय फज़ीहत दिवस  घोषित किया गया है।अगले साल से इस दिन अपनी फज़ीहत कराने वाले लोगों को मोक्ष के समान फल प्राप्त होगा।इस दिन आइसक्रीम खाना शुभ फल प्रदायक होगा।तथा पुरानी चीज़ों का दर्शन कल्याणकारी होगा।आज के दिन मितरोँ,भाइयों बहनों टाइप शब्दों से दूर रहें।
इति फज़ीहत षोडशी
बूझे!
ॐ फज़ीहते नमः


5 दिसंबर 2016, जब विदाई की पहली आहट मिली, यानी प्रथम सेमेस्टर का आखिरी सप्ताह शुरु हुआ

ख़फ़ा समाचार
iimc 2016-17 बैच के पहले सत्र के आखिरी सप्ताह की पहली क्लास......
बकवास बकवास बकवास.....
पढ़ना था पत्रकारिता का इतिहास...
मालवे जी का अवकाश........
कृष्ण सर ने किया अच्छा टाइमपास.....

अगर आप आज श्री बालमुकुंद की क्लास में नहीं थे,तो आप यह जानने से वंचित रह गए..कि vertical को हिंदी में लम्बोदरा कहते हैं और the hindu समाचार पत्र ढढ्ढर ढढ्ढर शैली में प्रकाशित होती है।

विवाद पत्रकारिता में कश्मीर समस्या की आग  जला ली...
जलाली जी ने इसी विषय पर पूरी क्लास चला ली।।

और अंत में अनुराग वाणी
"अगर आप बिहार में पत्रकारिता करना चाहते हैं,तो कैमरा-डायरी-पेन भले भूल जाइये,लेकिन देशी कट्टा ले जाना कभी मत भूलिए।"


पहले सेमेस्टर की परीक्षा से ठीक पूर्व का समाचार

ख़फ़ा न्यूज़:एग्जाम स्पेशल
परीक्षाओं का प्रकोप भारतीय जनसंचार संस्थान के छात्रों पर पूरी तरह से हावी है।तैयारियों के मद्देनज़र आज आखिरी मौका है।सभी अपने स्तर पर तैयारियों में लगे हैं।जिन्हें परीक्षा देनी है वो बुक में घुसे हैं,जिन्हें नहीं देनी है वो फेसबुक में।आईआईएमसी हॉस्टल में कुछ छात्र कॉफी पी पीकर पढ़ते हुए पाये गए,तो बेर सराय में कुछ लोग फोटोकॉपी की दुकानों पर बौखलाए हुए से दिखाई दिए।सूत्रों के मुताबिक कुछ लोग अपनी तैयारियों से ज्यादा दूसरों को तैयारी न करने देने में मेहनत कर रहे हैं।
हॉस्टल में frustrated लोगों की भारी भीड़ पहुँच रही है।

साल भर सासाराम की गाथासहज़राम की कहानी और वियतनाम का संघर्ष  सुनने के बाद ये देखना दिलचस्प होगा कि परीक्षा का परिणाम क्या होगा।

इस दरमियान कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने अभी तैयारियों का श्रीगणेश भी नहीं किया है,ऐसे लोगों का एग्जाम में नरेंद्र मोदी-नोटबन्दी होना तय है।
ख़फ़ा न्यूज़ आप सभी के सारे पेपर अच्छे होने की दुआ कर ता है।

महत्वपूर्ण सूचना
...परीक्षा दिवस की पूर्व संध्या पर हिंदी पत्रकारिता के सी आर विवेक कुमार का क्लास के नाम संदेश 6:00 बजे प्रसारित होगा....सिर्फ ख़फ़ा न्यूज़ पर

प्रथम सेमेस्टर की पूर्व संध्या पर सीआर का क्लास के नाम संदेश

हिंदी पत्रकारिता के सी आर श्री विवेक कुमार का परीक्षा की पूर्व संध्या पर क्लास के नाम सन्देश
मेरे प्रिय सहपाठियों,    
            आज इम्तिहान की इस पूर्वसंध्या पर आप सब को शुभकामनाऍं ।दोस्तों जिंदगी में इम्तिहान तो आते जाते रहेंगे इनसे किसी को भी घबराने की जरूरत नहीं है ।कुछ भावनओं को ध्यान में रखते हुए आज मध्यरात्रि 12 बजे से toppers competition और fail हो जाने की भावना लीगल टेंडर में नही रहेंगी।क्योंकि ये दोनों ही भावनाएं हमे कुछ भी नहीं सीखने देती,लेकिन नए विचार ,अच्छी बातें दोस्तों में शेयर करना ये सब नियमित रहेंगे ।जो सहपाठी किसी भी कारण से परीक्षा के नजरिये से बहुत अच्छी तैयारी नही कर पाएं ,इस कदम से उनको में समझता हूँ जरूर ताकत मिलेगी ।टॉपर बनने की भावना से जिन मित्रों ने तैयारी की है उनको बिल्कुल भी डरने की जररत नहीं है उसके लिए भी हमने तैयारी की है उनको दीक्षांत समाहरोह में मंत्री जी से सम्मानित करने का प्रबन्ध कर लिया गया है ।जिनकी तैयारी किसी भी कारण से अच्छी नही हो पायी है वे पुरी ईमानदारी से जो कुछ भी आता हो लिखें ,क्योंकि ये एक परीक्षा आपके जीवन की दशा व् दिशा तय नही कर सकती । आपका ज्ञान आपका ही रहेगा आपको कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है । हाँ 'टॉप करने 'और 'फेल' होने की भावना को सीखने की भावना से बदला जा सकता है और इसके लिए हमने कोई समय सीमा तय नही की है। इस कदम से घबराने की जरुरत बिलकुल नही है ये कदम सहपाठियों में किसी भी दुर्भाव  को न आने देने के लिए उठाया गया है । मुझे पता है कुछ दिन पेरशानी तो होगी लेकिन दोस्तों ये वर्तमान की समस्याओं को देखते हुए ये कदम उठाना पड़ा ।
दोस्तों सीखते रहो ,सीखाते रहो ।
नए नए विचार लाते रहो ।
बहुत बहुत धन्यवाद ।
विवेक( हिंदी पत्रकारिता)



बोल कि लब आजाद हैं तेरे
बोलिए, दरअसल एक ऐसा मंच बनाने की कोशिश थी जहां पूर्वाग्रहजनित विचारधाराओं के बांध फूट जाएं, जहां तार्किकता की धारा अबाध बह चले, जहां जानकारियों और तार्किक बहसों से ज्ञान की भागीरथी लहरा उठे। ये सिर्फ कोशिश नहीं थी, यह एक सपना भी था। एक ऐसा सपना जिसमें मेरा अपना भी स्वार्थ था। और वो स्वार्थ यह था कि देश भर से पत्रकारिता के कलमदारों की सबसे बेहतरीन खेप आईआईएमसी में पहुंची हुई है तो बहस और वाद-विवाद से तमाम तात्कालिक और महत्वपूर्ण मुद्दों के प्रति विविध आयामों में सोचने की एक प्रवृत्ति का विकास किया जाए। लेकिन अब इसे एक स्वप्न भर होने का दोष कहें या फिर इससे जुड़ा मेरा स्वार्थ, जितने लोगों की भागीदारी की आशा पाले बैठे थे उसके आधे लोगों ने भी इसमें रुचि नहीं दिखाई। लेकिन फिर भी, कुछ एक मित्रों का सहयोग रहा और बोलिए कम से कम दो महीने तो खूब बोला।
बोलिए कम से कम दो महीने तो खूब बोला

हर हफ्ते के शुक्रवार को शाम 5 बजे हम कभी योगा रुम में, कभी नीचे जावेद की दुकान के सामने की घास पर बैठकर, कभी मेघदूत रंगमंच की सीढ़ियों पर बोलिए का सत्र चलता रहा। बोलिए को शुरु करने और उसे संचालित करने में शताक्षी का अद्वितीय योगदान था। उसके सहयोग के बिना इसे शुरु करना ही मुश्किल था। इस बहस श्रृंखला को जीवंत किया हुआ था रीतिका और रोहिन ने। हमारे हर बहस सत्र के अनधिकारिक  स्थायी वक्ता के तौर पर दोनों की उपस्थिति हमेशा हुआ करती थी। इसके अलावा समर की उपस्थिति भी लगभग तय हुआ करती थी। नीलेश, अमनदीप, अभिषेक, विवेक सिंह, विवेक कुमार, प्राणेश, वरुण, आशुतोष आदि कई ऐसे साथी थे जिन्होंने समय समय पर बहस में हिस्सा लिया था।

हर शुक्रवार से पहले एक विषय वाट्स एप ग्रुप पर लिख दिया जाता था जिस पर तैयारी करके शुक्रवार को होने वाले सत्र में अपना पक्ष रखना होता था। हर सत्र के बहस के दौरान रखे गए पक्षों की एक रिपोर्ट उसके अगले दिन तैयार की जाती थी और उसे वाट्सएप ग्रुप पर ही पब्लिश कर दिया जाता था ताकि उन लोगों तक भी बहस से निकली संक्षिप्त जानकारियां पहुंच जाएं जिन्होने इसमें हिस्सा नहीं लिया था। इस प्रकार इस बहस श्रृंखला की कुल 9 कड़ियां संपन्न हो सकी थीं। जिनमें सात सेमेस्टर परीक्षा से पहले तक संपन्न हुई थीं और बाकी एक सेमेस्टर परीक्षा के बाद बोलिए 2 में।

बोलिए श्रृंखला के कुछ एक बहसों की रिपोर्ट

पहली बहस श्रृंखला की रिपोर्ट

"समुद्री जल को न बनाएं खलनायक":आशुतोष


आज बहस श्रृंखला बोलिये! की पहली कड़ी भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रांगण में सम्पन्न हुयी। कावेरी जल विवाद विषय पर आयोजित बहस में तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी नदी के जल बंटवारे को लेकर उठे विवाद पर वक्ताओं ने अपने विचार रखे।विषय पर बोलते हुए रीतिका ने कहा, "कावेरी नदी जल विवाद 135 वर्ष पुराना विवाद है।जो तत्कालीन मैसूर राज्य तथा मद्रास प्रेसीडेंसी के बीच कावेरी नदी के जल बंटवारे को लेकर था।बाद में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान सन्1924 में पानी के बंटवारे को लेकर दोनों राज्यों में समझौता हुआ।बाद में इस झगड़े में केरल और पुद्दुचेरी के भी शामिल हो जाने से मामला और भी जटिल हो गया।" विवाद के कानूनी लड़ाई का इतिहास बताते हुए रीतिका ने कहा-"1984 में तमिलनाडु ने सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दी कि जल बंटवारा सही नहीं है।2007 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया।जिसके अनुसार तमिलनाडु को कावेरी नदी के जल का 58% कर्नाटक को 37% केरल को 4% तथा पुद्दुचेरी को 1% हिस्सा सौंपा गया।तमिलनाडु ने इस फैसले पर असहमति जताते हुए 1924 जल बंटवारे  के फैसले को लागू करने की वकालत की।"रीतिका ने इन विवादों के बीच जल संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाने का आह्वान किया।नासा की एक रिपोर्ट का

हवाला देते हुए बताया कि यदि हालत में सुधार नहीं हुए तो आने वाले वर्ष 2025 में भारत को भयंकर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। दूसरे वक्ता के रूप में अमनदीप ने इस मुद्दे पर चढ़ते राजनैतिक रंग पर चिंता व्यक्त की।अमनदीप ने कहा,"वास्तविकता यही है कि तमिलनाडु के पास इतना पानी नहीं है कि वो सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार कर्नाटक क जल सौंप सके।"उन्होंने कहा,"इस मुद्दे पर कर्नाटक की सारी पार्टियां एक साथ आंदोलन कर रही हैं।"विषय पर अपने विचार रखते हुए आशुतोष ने कहा,"इन विवादों के बीच नदी के पारिस्थितिकी तन्त्र से खिलवाड़ नहीं होना चाहिए।किसानों के इस मसले का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए।विवाद के निपटारे के लिए आवश्यक है कि इज़रायली तकनीकी द्वारा समुद्री जल के उपयोग की दिशा में भी कदम बढ़ाने चाहिए।" उन्होंने कहा कि" समुद्री जल खलनायक नहीं है।      

विषय पर बोलते हुए अंकित ने नदी जोड़ो परियोजना को सर्वाधिक प्रभावशाली उपाय बताया।उन्होंने कहा कि "गोदावरी नदी के पानी को नहर के माध्यम से उन जगहों तक भेजा जा सकता है जहां पानी की किल्लत हो।"अगले


वक्ता विवेक ने भी इज़रायली तकनीकी के प्रयोग को उचित ठहराया जिसमे समुद्री जल को सिंचाई के लिए इस्तेमाल किये जाने की योजना है। अंत में उपस्थित श्रोताओं और वक्ताओं ने अपने अपने हिसाब से इस समस्या के निपटारे हेतु सुझाव दिए।आशुतोष और अभिषेक ने वैकल्पिक उपाय ढूँढने पर ज़ोर दिया,जबकि विवेक और अनुराग ने तमिलनाडु सरकार के सुप्रीम कोर्ट के आदेश मानने को समस्या का समाधान बताया।रीतिका और अमनदीप के अनुसार दोनों राज्यों के बीच मध्यस्थता ज़रूरी है। इन सभी के अतिरिक्त बहस के दौरान गौरव पाण्डेय,शताक्षी अस्थाना तथा वैभव पलनीटकर ने भी विषय पर अपने विचार प्रकट किये।संचालन राघवेंद्र शुक्ल ने किया।।


दूसरी बहस श्रृंखला की रिपोर्ट

'दिल्ली में चल रही है केंद्र सरकार की दबंगई':समरजीत

"दिल्ली में दो तरह की दिल्ली रहती है,एक लुटियन ज़ोन की और दूसरी दिल्ली वालों की दिल्ली।लुटियन ज़ोन की दिल्ली पर केंद्र सरकार का नियंत्रण ज़रूरी है,लेकिन सिर्फ इस छोटे से क्षेत्रफल की सुरक्षा व्यवस्था का हवाला देकर दिल्ली के लोगों से पूर्ण राज्य में मिलने वाली सुविधाओं से मुंह नहीं मोड़ा जाना चाहिए।दिल्ली में लगभग 1.3लाख करोड़ रुपये का टैक्स जमा होता है जिसमे से केंद्र सरकार 1% से भी कम दिल्ली सरकार को वापस करती है।केंद्र सरकार की राजनैतिक मंशा,प्रशासनिक निराशा और आर्थिक असहयोग में दिल्ली की जनता बुरी तरह पिस रही है।"उक्त बातें भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रांगण में हिंदी पत्रकारिता के समरजीत ने 'दिल्ली में कौन सरकार:जंग या केजरीवाल' विषय पर बोलते हुए कही।अवसर था साप्ताहिक बहस श्रृंखला बोलिये! की दूसरी कड़ी के आयोजन का।समरजीत ने कहा,"दिल्ली में उपराज्यपाल का प्रशासक होना ठीक नहीं है,क्योंकि गरीबों,किसानों और झुग्गी झोपडी में रहने वाले लोगों से राजनेताओं का ही संपर्क अच्छा हो सकता है न कि उपराज्यपाल का।यह राजनेताओं का ही काम है।"एंटी करप्शन ब्यूरो का मसला उठाते हुए उन्होंने कहा कि जब तक ACB दिल्ली सरकार के पास थी, करीब 700 अधिकारियों पर केस दर्ज़ हुए थे। ACB के केंद्र सरकार के पास जाते ही आश्चर्यजनक रूप से जुलाई 2015 से अब तक भ्रष्टाचार का कोई मामला दर्ज़ नहीं हुआ।"उन्होंने कहा कि "दिल्ली में केंद्र की राजनैतिक दबंगई चल रही है।चुनावी रैलियों में प्रधानमंत्री ने स्वयं दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने का वादा किया था।अगर यह असंवैधानिक है तो क्या प्रधानमन्त्री देश को बरगला रहे थे?"


विषय पर बोलते हुए रोहिन कुमार ने कहा कि,"उपराज्यपाल की संस्था केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रही है इसलिए दिल्ली सरकार पर केंद्र का सीधा हस्तक्षेप है।" उन्होंने कहा कि 'संविधान के मुताबिक़ LG और केजरीवाल दोनों अपनी जगह सही हैं।'उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि 'दिल्ली केंद्रशासित राज्य ज्यादा है या फिर राज्य?कानून व्यवस्था पर केजरीवाल कटघरे में होते हैं पर ज़िम्मेदार गृह मन्त्रालय होता है।लोग जवाबदेही दिल्ली सरकार से तय करते हैं न कि गृह मंत्रालय से।रोहिन ने बताया कि "अधिकारों की इस लड़ाई से आम जनमानस इस विषय में जागरूक हो रहा है कि पॉवर किसके पास है।अब तक केंद्र और राज्य सरकारों की मिलीभगत से कुछ पता नहीं चल पाता था।ऐसा शायद पहली बार है जब केंद्र और राज्य के बीच अधिकारों का मामला अदालत में पहुंचा है।" रोहिन ने कहा कि "उपराज्यपाल की संस्था दिल्ली सरकार को परेशान करने के लिए इस संस्था का दुरूपयोग कर रही है।अगर LG ही प्रशासनिक प्रमुख है तो चुनाव नहीं होना चाहिए।" गौरव प्रभात ने कहा कि,"दिल्ली की समस्या केवल 'Clash of power' की समस्या है।"उन्होंने कहा कि "यदि दिल्ली को पूर्ण राज्य बना दें तो हो सकता है कि राज्य सरकार राजनैतिक कारणों से केंद्र सरकार के विभिन्न कार्यों में व्यवधान डाले।" उन्होंने बताया कि केंद्र सरकार पूरे देश की सरकार होती है,अतः दिल्ली का शासन चलाने के लिए उपराज्यपाल की व्यवस्था की जाती है।


वरुण सूद ने कहा कि,"देश के सभी राज्यों को पॉवर का बराबर बंटवारा होना चाहिए,नहीं तो सत्ता के केंद्रीकरण को बढ़ावा मिलेगा।किसी भी राज्य में यदि केंद्र ज्यादा प्रभाव में हो तो यह भी ठीक नहीं है।" दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने के प्रश्न को सिरे से नकारते हुए अगले वक्ता विवेक कुमार ने कहा कि "विश्व में ऐसा कहीं भी नहीं है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा मिला हो।"उन्होंने कहा कि "आर्टिकल 249 A में बहुत विरोधाभास है।CM और LG के अधिकार तय नहीं है।उन्होंने हाई कोर्ट के उस फैसले को बिलकुल सही ठहराया जिसमे ये कहा गया था कि दिल्ली में उपराज्यपाल ही प्रशासनिक प्रमुख हैं।और केजरीवाल का कोई भी फैसला LG पलट सकते हैं।ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। दिल्ली के पूर्णराज्य बनाने के सवाल पर रोहिन कुमार ने कहा कि दिल्ली को पूर्ण राज्य अवश्य बनाया जाना चाहिए।इससे शुरुआत में थोड़ी बहुत समस्याएं तो आएंगी,लेकिन दिल्ली के लिए यही सही होगा।वहीं समरजीत ने दिल्ली पुलिस राज्य सरकार को सौंपे जाने की वकालत की और VIP क्षेत्रों की सुरक्षा व्यवस्था के लिए अलग सुरक्षा एजेंसी बनाने का सुझाव दिया।



तीसरी बहस श्रृखला की रिपोर्ट

"विकास विध्वंस का कारण है!"

जलवायु परिवर्तन की समस्या आधुनिक विश्व की समस्याओं में क्या स्थान रखता है यह संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में आयोजित 1992 से लेकर 2014 तक की 20 कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज से साफ़ अंदाजा लगाया जा सकता है।जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 1988 में इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज(IPCC) का गठन किया था,जिसने अपने तमाम सर्वेक्षणों के बाद विश्व को आगाह किया कि यदि जल्द से जल्द कार्बन उत्सर्जन के दरों में कमी नहीं की गयी,ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कमी नहीं की गयी,ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव पर नियंत्रण नहीं किया गया तो आने वाले समय में पृथ्वी पर जीवन के विनाश का रास्ता साफ़ हो जायेगा।आनन फानन में जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय बैठकों का दौर शुरू हुआ।इसी क्रम में 2014 में पेरू के लीमा में 20वीं दफ़ा हुए अंतर्राष्ट्रीय बैठक में यह तय किया गया कि IPCC के सभी सदस्य देश अपने अपने देश में स्वेच्छा से कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य तय करेंगे और अमल में लाएंगे।यदि फिर भी वांछित परिणाम प्राप्त नहीं होते तो दिसंबर 2015 में होने वाली 21वीं बैठक में बाध्यकारी समझौतों पर हस्ताक्षर प्रक्रिया शुरू की जायेगी।इसी पृष्ठभूमि में जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते की नींव रखी जाती है।
30 नवम्बर 2015 से 11 दिसंबर 2015 तक मानवाधिकार दिवस की छाया में स्वच्छ पर्यावरणाधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय बहस में यह तय किया गया कि सभी 195 सदस्य देशों में से जलवायु परिवर्तन की समस्याओं पर गम्भीर तथा इसके समाधान की दिशा में प्रयास करने की मंशा रखने वाले देशों को पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने होंगे,जिसके महत्वपूर्ण अनुच्छेद कहते हैं कि-
#1.हमारा यह लक्ष्य हो कि वैश्विक तापमान औद्योगीकरण की शुरुआत के दौर (यानी कि 1850 ईस्वी के समय से) के तापमान की तुलना में 1.5 से ज्यादा न बढ़े।
#2.प्रत्येक देश इस बाबत कार्बन उत्सर्जन में कटौती के स्वयंघोषित लक्ष्यों को संयुक्त राष्ट्र संघ में पंजीकृत कराये तथा उसी अनुसार कार्बन उत्सर्जन में कटौती लागू करे।
#3.विकसित देश अपने विकास के अलावा जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिए विकासशील अथवा गरीब देशों को प्रतिवर्ष 100 बिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता उपलब्ध कराये।
31 पेजों और 29 अनुच्छेदों वाले पेरिस समझौते में अनेक प्रावधान हैं।ग्रीनहॉउस गैस उत्सर्जन का 56 फीसदी से अधिक उत्सर्जन करने वाले विश्व के 72 देशों द्वारा फिलवक्त में मंजूरी मिलने के बाद आने वाले 30 दिनों में पेरिस जलवायु समझौते के लागू होने की संभावना भी है। बोलिये! बहस श्रृंखला की तीसरी कड़ी में भारतीय जनसंचार संस्थान के विवेकानद शिला के समीप घासों पर बैठकर इस अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता पर बहस के दौरान अनेक प्रश्न उठाये गए, मसलन पेरिस समझौते की आवश्यकता क्यों पड़ी? पेरिस समझौता के जमीनी स्तर पर साकार होने की कितनी सम्भावना है?या फिर इस समझौते के लागू हो जाने के बाद क्या जलवायु परिवर्तन की समस्या पर नियंत्रण पाया जा सकेगा??इन प्रश्नों का जवाब देते हुए हिंदी पत्रकारिता की रीतिका ने बताया कि "जलवायु परिवर्तन की समस्या औद्योगीकरण दौर की शुरुआत से ही यानी कि 1900 से शुरू हो गयी थी।नाइट्रस ऑक्साइड,कॉर्बन डाई ऑक्साइड,मेथेन आदि ग्रीनहाउस गैसों के कारण धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है।ग्लेशियर पिघल रहे हैं,समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है,वनस्पतियों पर भी उसका प्रभाव पड़ रहा है।इन समस्याओं से निपटने के प्रयासों पर चर्चा के लिए विश्व समुदाय को एक मंच पर आना आवश्यक था।पेरिस समझौता इसी आवश्यकता की परिणति थी।वैश्विक तापन के कारण पिघलते ग्लेशियर कुछ जगहों पर अपना असर दिखाना शुरू कर चुके हैं।जैसे सुंदरवन का अधिकांश इलाका समुन्दर में डूब चूका है।IPCC की मानें तो सिंधु सभ्यता से जुड़े दो ऐतिहासिक शहर 2025 तक पूरी तरह समुद्र में समा जाएंगे।"रीतिका ने IPCC की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि 'इस शताब्दी के अन्त तक दक्षिण एशिया का तापमान 2.7 से 4.7 तक बढ़कर ही रहेगा।'
गौरव प्रभात ने पेरिस समझौते की जमीनी हकीकत की पड़ताल करते हुए बताया कि "इस बाबत ग्राउंड लेवल पर कोई काम अब तक शुरू नहीं हो पाया है।सिर्फ 10% देशों ने ही इस सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र को भेजी है।जबकि 99% ने अभी तक इस दिशा में कोई पहल नहीं की है।" रोहिन कुमार ने पेरिस समझौते की सिफारिशों के लागू होने की समस्यायों के एक और पहलू से अवगत कराते हुए कहा कि,"विकसित देश अब अपने देश में फैक्टरियां स्थापित करने की बजाय अविकसित देशों में की ओर रूख कर रहे हैं,जो उपनिवेशीकरण के नए दौर का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।वे अपनी सीमा में नहीं बल्कि दुसरे देश की सीमा में कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं।"पेरिस समझौते की कमी की ओर इशारा करते हुए रोहिन कहते हैं कि "यह कौन तय करेगा कि किस देश ने अपने निर्धारित लक्ष्य से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन किया तथा उन पर ऐसा करने पर क्या करवाई होगी।समझौते के अनुसार विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए प्रतिवर्ष 100 बिलियन डॉलर का आर्थिक सहयोग देना है,तो यह कैसे तय होगा कि कौन सा देश कितनी राशि का योगदान करे।"
अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं में से एक जलवायु परिवर्तन की समस्या पर अनेक प्रश्न उठाते जवाब देते बहस श्रृंखला की तीसरी कड़ी भी सम्पन्न हो गयी और जैसा कि रोहिन कहते हैं कि 'हर डिबेट एक आदर्शवादी वाक्य के साथ छोड़ दी जाती है' उससे ये बहस अलग दिखाई नहीं देती।जलवायु परिवर्तन के समाधान में व्यक्तिगत स्तर पर किये जाने वाले प्रयासों मसलन ज्यादा से ज्यादा public ट्रांसपोर्ट का प्रयोग,वृक्षारोपण,एयर कंडिशनर,रेफ्रीजिरेटर आदि के सीमित उपयोग आदि के लिये सबने स्वीकृति तो दी,अब देखना ये है कि इनको वास्तविकता की ज़मीन पर कौन कौन उतारता है।रीतिका ने महात्मा गांधी की एक बात को याद दिलाते हुए कहा था कि विकास विध्वंस का कारण लेकर आता है और हम सभी का दुर्भाग्य है कि यह वाक्य आधुनिक विश्व के लिए शब्दशः सही है।

चौथी बहस श्रृंखला

ट्रम्प से डरने की ज़रूरत नहीं":रोहिन कुमार

"इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव परिणाम 'अंधों में काना राजा' की कहावत को चरितार्थ करने वाला रहा।यह दो अल्प योग्य उम्मीदवारों में से एक योग्य उम्मीदवार का चुनाव करने वाली स्थिति थी।जिसमें समस्त राजनैतिक पण्डितों के सारे अनुमान और ओपिनियन पोल्स सिरे से धराशायी कर चुनावों से पूर्व लगभग पराजित माने जा चुके डोनाल्ड ट्रम्प बाज़ी मार गए।"अमेरिकी चुनावों से सम्बंधित ट्रम्प की जीत,दुनिया भयभीत?? विषयक बहस सत्र के दौरान रीतिका ने अपना पक्ष रखते हुए डोनाल्ड ट्रम्प की जीत का कारण भी स्पष्ट किया।उन्होंने कहा कि "पूरे चुनाव प्रचार के दौरान हिलेरी सिर्फ इसी बात पर फोकस करती रहीं कि 'ट्रम्प ने क्या कहा?''ट्रम्प ने क्या किया?'जबकि ट्रम्प ने अमेरिका की गिरती अर्थव्यवस्था और युवाओं को रोज़गार जैसे ज्वलन्त मुद्दों पर फोकस किया।और शायद इसलिए अमेरिकियों ने देश की पहली महिला राष्ट्रपति से ज्यादा अमेरिका की वर्तमान समस्याओं पर बात करने वाले ट्रम्प को ज्यादा महत्व दिया।"
वहीं प्राणेश ने बताया कि "पिछले 15 वर्षों के दौरान अमेरिका ने 50000 नौकरियां गँवायीं हैं,जिसके चलते अमेरिकियों को ट्रम्प में एक अच्छा बिजनेसमैन दिखाई दिया और उनके शासन में नयी नौकरियों के अवसर मिलने की उम्मीद दिखाई दी।और शायद इसीलिए डोनाल्ड ट्रम्प अब अमेरिका का राष्ट्रपति है।ट्रम्प की भावी विदेश नीति पर अंदाज़ा लगाते हुए प्राणेश कहते हैं कि "ट्रम्प पाकिस्तान को एक खतरनाक देश मानता है तथा (चुनाव प्रचार के दौरान दिए भाषणों के अनुसार) साथ ही साथ भारत का हर कदम पर साथ देने का आश्वासन भी देता है।" प्राणेश ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने पर सबसे ज्यादा नुकसान चीन  का देखते हैं,जिसके विषय में ट्रम्प के विचार कुछ ठीक ठाक नहीं हैं। ट्रम्प के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने पर तमाम लोगों के मन में उठती आशंकाओं को सिरे से खारिज़ करते हुए रोहिन कहते हैं कि "ट्रम्प के nationalism से किसी को कोई नुकसान नहीं है।इससे किसी को डरने की कोई ज़रुरत नहीं।48% अमेरिकियों ने ट्रम्प को वोट दिया है।महिलाओं में 42% महिलाओं का वोट ट्रम्प के खाते में पहुंचा।इतने बड़े जनादेश पर डर,खतरा या आशंकाओं के सवाल उठाना ठीक नहीं।"रोहिन ने कहा "ट्रम्प की जीत के बाद भी उनके खिलाफ लोगों ने सड़कों पर प्रदर्शन किया।जो एक उदार लोकतंत्र का शानदार परिचय देता है।" *समरजीत* ने अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की two party system पर सवाल उठाते हुए कहा कि "यह पद्धति इस प्राचीन लोकतंत्र का एक बड़ा दोष है,जिसमें दो उम्मीदवारों में से एक को चुनना होता है,चाहे दोनों अयोग्य ही क्यों न हों।"
ट्रम्प की जीत के कारणों की पड़ताल करते हुए वरुण बताते हैं कि "ट्रम्प ने अमेरिकियों के राष्ट्रवादी भावनाओं को चुनाव में खूब भुनाया है।उनकी अमेरिका फर्स्ट की रणनीति पूरी तरह से कारगर रही। हिलेरी की हार के कारण को स्पष्ट करते हुए दया सागर ने कहा कि "अमेरिकी जनता economic मॉडल पर ज्यादा ध्यान देती है,हिलेरी के पास ऐसा कोई मॉडल नहीं था।डोनाल्ड ट्रम्प इसी मोर्चे पर उनसे आगे निकल गए।"
सवाल जवाब की इस श्रृंखला में इन सभी के अतिरिक्त विवेक,शताक्षी,प्रशांत,आकांक्षा,सुनील,सुरभि,अंकिता और रवि की भी उपस्थिति रही।
खैर,जनवरी 2016 में ट्रम्प अमेरिका के 45वें अधिपति बन जायेंगे। ओबामा युग में अमेरिका और भारत की परवान चढ़ी दोस्ती अब क्या करवट लेगी यह तो भविष्य के गर्भ में है।अप्रवासियों के मन में आशंका अभी बरकरार है।तमाम वैश्विक मुद्दों मसलन पेरिस समझौता,isis,अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद,एन एस जी में भारत की स्थायी सदस्यता हेतू प्रयास आदि पर अमेरिका के नये सिंहासन का क्या रुख होगा,देखना दिलचस्प होगा।अभी इस बहस का निष्कर्ष संभावनाओं का छत्र ओढ़े हुए है।अनुमान की आँखों से हम जहां तक देख पाये,उस पर हमने मुखर होकर अपने विचार रखे।अब तमाम अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर देने का दायित्व समय पर है।

अगली कड़ी

"पत्रकारीय संगठन की निष्ठा सत्य के प्रति है न कि राष्ट्र के"

प्रेस या मीडिया राष्ट्रीय चेतना का स्वर है।इसीलिए जब कभी मीडिया के गलियारों से देशभक्ति के बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ अन्ना हज़ारे के आंदोलन का प्रसारण होता है तो सारा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में तिरंगा थामे निकल पड़ता है।इसीलिए जब कनफोडू आवाज वाली टीवी बहसों के बीच कोई एंकर राजद्रोह के आरोप वाले शख्स को देशद्रोही की उपाधि से अलंकृत करती है तो सबकी जुबान पर कन्हैया के देशद्रोही होने तथा जे एन यू के पकिस्तान होने के अफ़साने गूंजने लगते हैं।मीडिया में तख्तापलट की अद्वितीय क्षमता है।कार्यपालिका,विधायिका और न्यायपालिका के साथ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को थामे रखने वाले स्तंभों में एक है पत्रकारिता।पत्रकारिता को अपने उद्देश्य साधने के लिए स्वतंत्रता की महती आवश्यक्ता होती है।और स्वतंत्रता प्रेस के लिए अनिवार्य भी है।लेकिन जब बद्तमीज़ सत्ता के गिरेहबान पर हाथ डालकर मीडिया सवाल करने का साहस करती है,ऐसे में सत्ता प्रतिष्ठान इसकी स्वतंत्रता के पर कुतरने में देर नहीं लगाती।अंग्रेजों के ज़माने के ऐसे कई उदाहरण हम पत्रकारिता की कक्षाओं में पढ़ चुके हैं।ताज़ा मामला उठा है एक लोकप्रिय हिंदी टीवी न्यूज़ चैनल को एक दिन के लिए ऑफ एयर करने के सरकारी फैसले के बाद।सरकार ने 2 जनवरी को पठानकोट एयरबेस पर हुए हमले पर असंवेदनशील रिपोर्टिंग करने के कारण हिंदी न्यूज़ चैनल ndtv इंडिया को एक दिन यानी 9 नवम्बर 2016 को 24 घण्टे के लिए ऑफ एयर करने का निर्देश दिया था,जिसे बाद में वापस भी ले लिया गया।इस पूरे प्रकरण के बाद पूरे देश में मीडिया और प्रेस की स्वतंत्रता पर देशव्यापी बहस चल पड़ी।बात मीडिया की थी,राष्ट्रीय प्रेस दिवस की पूर्व संध्या का अवसर था,मीडिया के देश के सबसे बड़े संस्थान का प्रांगण था,और मीडिया के दांव पेंच सीख रहे कुछ पत्रकारिता के जिज्ञासु छात्रों का सम्मलेन था।विषय था स्वतंत्र प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
सिर्फ ndtv इंडिया ही नहीं,कश्मीर और बिहार के कुछ क्षेत्रीय न्यूज़ चैनलों पर लगे बैन के बाद प्रेस की स्वतंत्रता पर मंडराते खतरे पर चर्चा चलनी शुरू हो गयी।
बोलिये! श्रृंखला की 5वीं चर्चा इन्हीं घटनाओं के इर्द गिर्द उठते सवालों का जवाब ढूंढ रहीं थीं।चर्चा की शुरुआत करते हुए हिंदी पत्रकारिता की शताक्षी अस्थाना ndtv मसले पर बोलते हुए कहतीं हैं कि 'ndtv इंडिया की छवि anti establishment वाली है जो हर गलत लगने वाले मुद्दों पर मुखर होकर अपना विरोध दर्ज़ कराता है।लोगों के बीच में काफी लोकप्रिय होने के साथ साथ एक विश्वसनीय न्यूज़ चैनल के रूप में ख्यातिप्राप्त है।सत्ता पक्ष के गलत निर्णयों की मुख़ालफ़त करने की अपनी आदत के कारण इस पर इस तरह का एक्शन लिया गया है।यह एक तरह से पॉवर दिखाने की कोशिश है।जो कि अस्वीकार्य है।'इसी मसले का जिक्र करते हुए रोहिन कुमार कहते हैं कि 'ndtv इंडिया बैन मसले पर सरकार ने कहा है कि ऐसी कवरेज से आतंकियों को मदद मिल सकती थी,जबकि इस मामले पर कानून कुछ और कहता है।कानून के हिसाब से कवरेज लाइव नहीं होनी चाहिए,जो कि ndtv इंडिया को निर्दोष साबित करती है।'रोहिन ने कहा कि 'ndtv के विरोधी चरित्र के कारण उसके खिलाफ माहौल पहले से ही बन रहा था।साक्ष्य के तौर पर 13 जुलाई के दूरदर्शन  पर प्रसारित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए मीडिया विषयक कार्यक्रम का हवाला दिया जा सकता है जिसमें तरुण विजय ndtv पर बुरहान वानी को 'हीरो' बनाने का आरोप मढ़ रहे हैं,और एंकर उनकी बातों का समर्थन कर रहे हैं। यह आशंका तब और गहरा जाती है जब केंद्रीय मंत्री वी के सिंह ndtv के लिए पहली बार prestitute शब्द का प्रयोग करते हैं।"ndtv इंडिया पर हुई करवाई पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि "ऐसा करने से पहले एडिटर्स गिल्ड से बात क्यों नहीं की गयी?वरिष्ठ पत्रकारों से बात क्यों नहीं की गयी?क्या दुसरे चैनल्स को स्टडी किया गया था?"'इन सभी तथ्यों को रखने के बाद रोहिन यह भी कहना नहीं भूलते कि ndtvइंडिया को यह समर्थन उसके लोकप्रिय पत्रकार रवीश कुमार की वजह से मिला है।पत्रकारिता की सीमा' के सवाल के जवाब में रोहिन ने 'यंग मीडिया' के अक्टूबर अंक में छपे लेख का हवाला देते हुए कहा कि "1983 के फ़ॉकलैंड वॉर के समय BBC इंग्लैंड की सेना को 'हमारी सेना' की बजाय 'इंग्लैंड की सेना' लिखता था।ब्रिटिश प्रधानमन्त्री की नाराज़गी के जवाब में BBC के महानिदेशक जॉन ब्रिड ने कहा था कि पत्रकारीय संगठन राजनैतिक सत्ता का एक्सटेंशन नहीं है।उनकी निष्ठा राष्ट्र/राज्य के प्रति नहीं,सत्य के प्रति है।
मीडिया की स्वतंत्रता की राह में समस्या पर ध्यान दिलाते हुए रीतिका ने कहा कि "फ्रीडम ऑफ़ प्रेस को ensure करने के लिए प्रेस कॉउंसिल ऑफ़ इंडिया का गठन किया जाता है।जिसमे एक चेयरमैन जो कि प्रायः सुप्रीम कोर्ट चीफ जस्टिस या फिर जुइडिशल बैकग्राउंड का कोई भी व्यक्ति हो सकता है,एडिटर्स,वर्किंग जर्नलिस्ट,तीन लोकसभा और दो राज्यसभा सदस्यों सहित कुल 28 सदस्य होते हैं।सरकारी प्रतिनिधित्व वाले लोगों की उपस्थिति के कारण PCI की ही स्वतंत्रता संदिग्ध लगती है।"भारत में प्रेस की स्वतंत्रता की स्थिति स्पष्ट करने के लिए रीतिका ने US Based संस्था फ्रीडम ऑफ़ प्रेस रिपोर्ट की इस साल की रिपोर्ट का ज़िक्र किया जिसके अनुसार भारत को 'प्रेस की स्वतंत्रता मामले में' 19वें पायदान पर रखा गया है और भारत में प्रेस को partially free बताया गया है।
विवेक कुमार ने वर्तमान स्थिति की तुलना आपातकाल से करने पर असहमति जताई और कहा कि "यदि 1975 के आपातकाल में स्थितियां आज  से बहुत भिन्न और भयावह थीं तो आज की स्थिति को आपातकाल की बजाय किसी और शब्द से सम्बोधित करना चाहिए।"
लगभग 1 घण्टे 8 मिनट की बहस ने कुछ निष्कर्ष जरूर निकाला।मसलन:आधुनिक समय में मीडिया उद्योग में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का बहुत अभाव है।ndtv बैन पर ज़ी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा का बयान इसका उदाहरण है।
मीडिया की स्वतंत्रता में मर्यादाएं  तय करने के लिए सेल्फ रेगुलेशन ज़रूरी है।
प्रेस कॉउंसिल ऑफ़ इंडिया का अधिकार क्षेत्र भी केवल प्रिंट मीडिया तक ही सीमित है।इसका दायरा बढ़ाकर मीडिया के समस्त संस्करणों को इसमें शामिल किये जाने की आवश्यकता है।
ये तो था बोलिये! श्रृंखला का 5वां पड़ाव।अपनी सीमित परिधि वाली जानकारियों की सहायता से ही सही,हमने अपने आस पास के मुद्दों से जुड़े रहने के लिए आवश्यक प्रक्रियाओं को ज़ारी राखनेकी परंपरा को अबाध,अविरत प्रवाहित करने का छोटा सा प्रयास किया है।और इस प्रयास की अगली कड़ी में हम फिर बैठेंगे एक वृत्त की शक्ल में,नए विषय के साथ,नए तर्कों के साथ।नए निष्कर्ष निकालने के लिए।सवाल उठाने के लिए।बोलने के लिए।क्योंकि बोलना हमारा अधिकार भी है और हमारे सजीव होने का सबूत भी।क्यों??

प्रधान संपादकः  कृष्ण सर

कृष्ण सिंह सर हिंदी पत्रकारिता के विभागाध्यक्ष हेमंत जोशी के बतौर सहयोगी काम करते थे। हम लोगों की संपादन और अनुवाद की कक्षाएं भी उन्ही की देख रेख में होती थीं। एक शिक्षक होने के इतर कृष्ण सर का व्यवहार छात्रों के प्रति इतना स्नेहिल था कि संस्थान से विदाई के वक्त सबके विरह दुख में कृष्ण सर शामिल थे। कृष्ण सर बहुत बार याद आएंगे, मसलन जब किसी न्यूज वेबसाइट की खबरों का अनुवाद करते वक्त हम गलतियां करेंगे तब अपने ऑफिस में इंडीविजुअली बुलाकर समझाते हुए, जब ऑफिस लेट से पहुंचेंगे और बॉस की डांट पड़ेगी तब लेट से आने पर विनम्र डांट डांटते हुए, बायो अटेंडेंस लगाते हुए भी कैंटीन तक अटेंडेंस सीट लेकर घूमते हुए कृष्ण सर बहुत याद आएंगे।

किताबों के बीच का हमसफरः आश मोहम्मद


लाइब्रेरी सत्र के आखिरी दिनों में लगभग सुनसान पड़ी रहती थी। इस सन्नाटे में हमारा एक ही साथी था जो लाइब्रेरी में घुसते ही एक अद्वितीय मुस्कान के साथ हमारा स्वागत करता था। नाम था आश मोहम्मद। मुझे ये आज तक नहीं पता है कि लाइब्रेरी में उनका ओहदा क्या है। लेकिन लाइब्रेरी से जुड़ी हमारी कोई भी परेशानी उन्ही ने दूर किया है। वोल्गा से गंगा राहुल सांकृत्यायन की लिखी एक किताब है जिसे हमने लाइब्रेरी से अक्टूबर में ईश्यू करवाया था और फरवरी में वापस किया। नियम से देखें तो किताब के मूल मूल्य से ज्यादा तो उस पर फाइन हो गया था। आश मोहम्मद के ही सहयोग से इतना फाइन भरने की नौबत नहीं आई। जब भी लाइब्रेरी गए दो तीन दिन गुजर जाते तो अगले दिन जाने पर आस मोहम्मद पूछना नहीं भूलते बड़े दिन हो गए, लाइब्रेरी आना कम कर दिया क्या।

एक बहुत ही विनम्र और बेहतरीन इंसान के तौर पर आश मोहम्मद आजीवन हमारी यादों में रहेंगे। आपसे बिछड़ना भी कम दुखदायी नहीं है।

अद्वितीय मुस्कान वाले अन्नदाताः महिपाल जी



व्यक्ति ने जीवन भर कुछ न कमाया हो लेकिन उसने अगर बिना शर्त लोगों की मोहब्बत कमाई हो तो समझ लेना चाहिए कि उससे अधिक धनवान धरती पर कोई नहीं है। एक अखण्ड मुस्कान और अद्भुत तेज वाला वह गोरा चेहरा जो हर बार मिलने पर थोड़ा और खिलकर मुस्कुरा उठता था जिसे हम लोग महिपाल जी कहकर बुलाते थे, उसने शायद जिंदगी भर मोहब्बत के इस धन की बड़ी कमाई की है। संस्थान के कैंटीन के खाने में हर दिन कुछ न कुछ कमी रहती ही थी लेकिन हर उस कमी को महिपालजी की मीठी बोली और उनकी फूलों सी मुस्कुराहट पूरी कर देती थी। संस्थान में रहते हुए जब कुछ समझ न आए कि क्या करें तब कदम अनायास कैंटीन की ओर बढ़ जाते थे। और कुछ नहीं तो महिपाल जी चाय पिलाइए का जवाब हां राघवेंद्र चाय पी लो सुनने के लिए ही महिपाल जी से मिलने पहुंच जाते। दिन भर की कितनी भी निराशा हो, जिंदगी की कितनी ही परेशानियां हों इनके चेहरे की मुस्कुराहट जैसे हिमालय की तरह अटल, अखण्ड और अडिग है जिसकी गोद के किसी शहर से महिपाल जी संबंध रखते हैं। जीवन के बढ़ते दौर में दुनिया के किसी कैंटीन में चले जाएं महिपाल जी आज तो आप बड़े स्मार्ट लग रहे हैं कहने पर खिल जाने वाले महिपाल जी हमेशा याद आते रहेंगे।

अंत में- स्मृति गान







जीवन और मृत्यु के बीच सिर्फ एक दौड़ भर का भी फासला हो सकता है!

ग ली में घुसते ही लोग बाइक पर बैठकर, पैदल ही या अन्य वाहनों से तेजी से भागे जा रहे थे। मामला क्या था अभी समझ नहीं आ रहा था। हम गली में अपने...