अब जाना तो होगा ही न
आईआईएमसी में हमने हर दिन दो-दो दिन जिए हैं और ये हर दिन
कभी न मिट सकने वाली स्मृतियों के शिलालेख हैं। आईआईएमसी और जेएनयू में बिताए एक
एक पल पिछले एक महीने से न ठीक से सोने दे रहे हैं और न जगने ही दे रहे हैं।
उठते-बैठते कभी महिपाल जी की कैंटीन में लंच करते समूचा क्लास याद आ जाता तो कभी
ब्रह्मपुत्रा के यादव जी की चाय। ठीक-ठाक मौसम हो तो ब्रह्मपुत्र से आगे बढ़कर
जेएनयू की सड़कें नापना भी एक अद्वितीय अनुभव था। इन सबका आधार स्तंभ था वहां का वातावरण।
दिल्ली जैसै शहर में इस तरह के वातावरण की कभी कल्पना नहीं थी।
अपना कैंपस भी तो किसी बेहतरीन उद्यान से कम नहीं था। चारों
तरफ वृक्षों से भरा पड़ा परिसर अरावली की शिलाओं की शिल्पकारी से खूबसूरती के
उच्चतम स्तर को भी पीछे छोड़ देता था। मुझे याद है अगस्त,सितंबर और अक्टूबर का वह
दृश्य जब कक्षाएं खत्म होने के बाद हम सभी जावेद की दुकान के सामने घासों पर आकर
बैठ जाते थे बिना किसी सूचना के और फिर तमाम बातों के बीच डॉ अनुराग अनुभव की
कविताओं का रस बरस पड़ता था। जब हम भी अपनी कठिन भाषा वाली पंक्तियां पढ़ देते थे
और स्नेहवश सभी तालियों से उसकी इज्जत रख लेते थे। बाद में इन महफिलों पर ठंड की
ओस का असर पड़ने लगा और नवंबर आते- आते इस सभा का अस्तित्व लगभग खत्म ही हो गया।
आशंकाएं घुमड़ती थीं दिमाग में। आईएमसी छोड़ने के बाद कैसे
जिएंगे हम लोग। फिर भी कल्पना के पंख वहां तक उड़कर जा नहीं पाते थे जहां से हम यह
देख सकें कि इतना शानदार वातावरण छोड़ने के बाद का दृश्य क्या होगा। बस कैंपस छोड़
कहीं जाने का मन नहीं होता।
कुछ स्मृतियां हैं ..
शुरुआत करते हैं 15 अगस्त से। संस्थान में आए महज 10 दिन
हुए थे। किसी से कोई खास परिचय था नहीं। 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस का कार्यक्रम
संस्थान में मनाया जाना था। क्लास में 15 और 17 अगस्त के कार्यक्रमों की लिस्ट
तैयार की जा रही थी। आशुतोष के नेतृत्व में रेणु का नाटक पंचलाइट के मंचन का
कार्यक्रम बना। मैंने भी अपना नाम दिया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने की
उत्सुकता बचपन से रहती थी। उस समय हम द्वारका से आते थे। इस वजह से नाटक की
तैयारियों के लिए उपलब्ध नहीं रह पाते थे। सो नाटक से पत्ता अपने आप कट गया। 14
अगस्त की शाम एंकरिंग के लिए जब मंच में ऑडिशन चल रहा था तब पता चला कि कल के
कार्यक्रम में कविता भी पढ़ सकते हैं। मैंने डीजी सर को अपनी कुछ कविताएं पढ़ाईं
जो उस वक्त ऑडिटोरियम में मौजूद थे। कविताएं कुछ निराशा भरी तीं जिस वजह से
उन्होंने कह दिया कि स्वतंत्रता दिवस है तो कुछ जश्न टाइप कविताएं लाओ। ये रोने
धोने वाली कविताएं रहने दो। हम घर आए और कुछ नई कविताएं लिखकर कुछ पुरानी इकट्ठी
कर कल हर हाल में सुनाने का निश्चय किया।
कार्यक्रम लिस्ट में मेरा नाम था तो मुझे मंच पर बुलाया भी गया। मैनें कई
मुक्तक पढ़े और एक कविता पढ़ी। लोगों का इतना समर्थन मिला कि उत्साह और आनंद नें
सीमाएं तोड़ दीं। कई लोग बाहर मिलकर तारीफ करते। उस दिन का वह कार्यक्रम शुरुआत से
लेकर अंत तक इतना जबर्दस्त था कि आज भी याद करते ही होठों पर हंसी तैर जाती है।
खासकर अंत का वह शानदार गीत जिस पर पूरा ऑडिटोरियम मंच पर आ गया और झूमने लगा।
17 अगस्त को संस्थान का 51 वां स्थापना दिवस समारोह था। दो
दिन पहले ही हुए एक कार्यक्रम में मैंने एक ऐसी कविता पढ़ दी थी जो लोगों को तो
खूब पसंद आई लेकिन प्रशासन नाराज हो गया था। इसलिए जब इस कार्यक्रम में मैंने
कविता पढ़ने का अनुरोध किया तब मुझसे देशभक्ति नहीं बल्कि संस्थान पर कुछ लिखकर
सुनाने के लिए कहा गया। मैनें न तो हां कहा और न ही ना। क्योंकि मैं लिखने की
गारंटी नहीं दे सकता था। द्वारका जाने के लिए हमें मुनीरका से बस पकड़नी होती थी,
सो वहां तक तो पैदल जाना होता था। उस दिन मैं पैदल नहीं गया बल्कि उस दिन मैंने
हिंदी शब्दों के नगर में अपनी कविता के शिल्प के लिए छंदों के रथ की यात्रा की थी।
रास्ते भर में एक प्यारा सा गीत तैयार था। जिसकी पहली दो पंक्ति थी,
“बाग संचार का और भी खिल उठा, आईएमसी जब इक बागबां बन गया।
साल इक्यावन से चलता हुआ ये सफर, देखते-देखते कारवां बन गया”।
17 अगस्त को हमें इलाहाबाद की ओर कूच करना था। इसलिए पूरा
कार्यक्रम देखने का समय भी नहीं था हमारे पास। डेवलपमेंट जर्नलिज्म के विदेशी
छात्रों के कार्यक्रम के बाद मेरा नंबर आया। प्रस्तुति ठीक-ठाक रही लेकिन
प्रतिक्रियाएं सुनने के लिए हम वहां मौजूद नहीं थे अगले दिन।
4 सितंबर को जब इलाहाबाद से फिर दिल्ली लौटे तो यहां हिंदी
पखवाड़े के विभिन्न आयोजन गतिशील थे। दुर्भाग्य था कि अधिकांश प्रतियोगिताएं निकल
चुकी थीं और मेरे पास पछताने के अलावा कुछ भी नहीं था। 11 दिन की कक्षाएं छूटी थीं
हमसे। इस बीच निबंध प्रतियोगिता और वाद-विवाद प्रतियोगिता जैसी प्रतियोगिताएं भी
बीत चुकी थीं।यही वो दौर था जब लोग एक दूसरे से घुल मिल रहे थे। इसी दौर में एक और
कार्यक्रम ने दस्तक दी। मौका था हिंदी पखवाड़े के समापन और पिछले वर्ष के छात्रों
के दीक्षांत समारोह का। एंकरिंग के लिए हुए ऑडिशन में मुझे चुन लिया गया। साथ में
रीतिका को भी एंकरिंग करनी थी। और दो और एंकरों में जसीम उल हक और हिमाक्षी शामिल
थे। हमने तय किया कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों की एंकरिंग जसीम और हिमाक्षी करेंगे
और हिंदी पखवाड़े के कार्यक्रमों का संचालन हम और रीतिका कर लेंगे। तय कार्यक्रम
के हिसाब से काम शुरु हुआ. कार्यक्रम थोड़ा सा लेट शुरु हुआ था, इसलिए जल्दबाजी भी
रही। सब कुछ ठीक चल रहा था तब तक, जब तक बहुत होशियारी दिखाने के चक्कर में हमनें
वह जोक नहीं सुना दिया था जिसका जिक्र मैं यहां बिल्कुल नहीं करुंगा क्योंकि वह
याद रखने वाली चीज है ही नहीं।
तब अक्टूबर की तारीखें दौड़ रही थीं। सब एक दूसरे को नाम से
जानने लगे थे। अलग-अलग बिखरे हुए लोग अपने अपने ग्रुप की संरचना संवारने में व्यस्त थे। बचपन से लेकर आज
तक मेरी स्थिति यही थी कि कोई ऐसी सीमा नहीं बांधी थी कि जिसकी परिधि के अंदर के
लोग मेरे सबसे खास हों। यहां भी अब तक वही हाल था। इस दौरान जो सबसे बेहतरीन घटना
घटी थी, वो एक स्किट कंपीटिशन में हमारा प्रतिभाग करना था। शताक्षी को मेरे लेखन
पर इतना विश्वास हो गया था कि उसने मुझे स्किट लिखने के लिए बोल दिया जिसकी
विषयवस्तु भ्रष्टाचार के समाधानों और उसके लिए जागरुकता के इर्द गिर्द हो। मुझे
खुद पर इतना आत्मविश्वास कभी नहीं आया था कि मैं स्किट भी लिख सकता हूं। शताक्षी
और साधना के बार बार कहने पर मैं तैयार तो हो गया लेकिन मुझे पता नहीं था कि मैं
क्या और कैसे लिखूंगा। फिर भी कोशिश की, और ढाई घंटे में ही स्किट का लगभग 70
प्रतिशत लिख डाला। वो स्किट आज भी उसी हालत में वहीं तक रुकी पड़ी है। उसके आगे
नहीं बढ़ पायी। उसका कारण था समय का अभाव। क्योंकि स्किट की स्क्रिप्ट तय तारीख तक
हर हाल में इंडियन ऑयल के ऑफिस में भेजनी थी।इस लिए इंटरनेट से एक इंग्लिश स्किट
उठाकर साधना ने उन्हें मेल कर दिया। बाद में शताक्षी ने उसी स्किट का हिंदी अनुवाद
कर दिया जिसमें कुछ और संवाद जोड़कर हमने उसमें थोड़ा और सुधार कर दिया। अब
स्क्रिप्ट तो तैयार थी लेकिन एक्टर नहीं मिल रहे थे। सब दीवाली की छुट्टी में घर
जाने की तैयारी में थे। जाना तो हमें भी था, लेकिन हम लोग स्किट कंपीटिशन में
हिस्सा लेने का मन बना चुके थे। जल्दी ही वो समय भी आ गया जब हमें कंपटीशन के लिए
इंडियन ऑयल के ऑफिस जाना था। कंपीटिशन में केवल तीन टीमें थीं। पहली एमिटी
यूनीवर्सिटी की टीम थी दूसरा कोई थिएटर ग्रुप था और तीसरा अस्तित्व ग्रुप यानी कि
हम लोगों का। दूसरे नंबर पर हमें परफॉर्म करने के लिए बुलाया गया था। मैं इसमें
उद्घोषक के किरदार में था। इसके अलावा श्रेयसा भारत माता के, प्रिया नेगी, विवेक,
आशुतोष, अमनदीप, प्रिंस, शुभम, खुश्बू और साधना कई किरदारों में थे। कार्यक्रम के
अंत में हमें फर्स्ट रनर अप चुना गया। हमारी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। एक
ट्रॉफी हमारे हाथों में थी और 50 हजार रुपए की पुरस्कार राशि भी। हम चहकते हुए
संस्थान में आए। तब तक सबको खबर मिल चुकी थी। सब खुश थे। डीजी सर के ऑफिस में
ट्रॉफी, हेमंत जोशी, सुरभि दहिया और स्वयं डीजी सर के साथ फोटो सेशन भी हुआ। यह
जीत मैनें मेरी ओर से शताक्षी को समर्पित कर दी थी क्योंकि कहीं न कहीं उसकी ही
कोशिशों का नतीजा था जो इस तरह की उपलब्धि हमारे हाथ में थी। नहीं तो कितनी बार हम
लोग प्रोग्राम से क्विट करने के बारे में भी सोच चुके थे।
स्मृतियों के पृष्ठ पर जेएनयू की सड़कों पर उस नाइट आउट की
भी कहानी दर्ज है जो हम लोगों का पहला नाइट आउट था। बिना किसी पूर्वनियोजित
कार्यक्रम के हम लोग गंगा ढाबे से एक सीमित परिधि वाले अनिश्चित यात्रा की ओर कूच
करते हैं। इस कारवां में शामिल लोग हैं विवेक, शताक्षी, दया, पार्थ, अर्चिता और
स्तुति। रात भर हम लोग जेएनयू की खाली लेकिन गुलजार सड़कों पर लगातार चलते हैं।
फिर कहीं घासों पर बैठकर अंताक्षरी खेलते हैं, तो कभी कोई और खेल। अंतिम चरण में हम
पहुंचते हैं पीएसआर यानी कि पार्थ सारथि रॉक्स। तब तक सुबह हो चुकी होती है। नवंबर
का महीना, तेज ठंडी हवाएं और पीएसआर की पहाड़ी। बस थोड़ी सी ठंड कम होती तो
स्वर्गानुभूति में कोई कमी नहीं होती। दिन निकल आने के बाद हमने चलनेका प्रोग्राम
बनाया। शताक्षी का मन था कि यहां से सनराइज देखकर चलेंगे। लेकिन कोई रुकने को
तैयार नहीं था। अंत में उसे अपनी इस इच्छा को मारना पड़ा और काम यहीं गड़बड़ हो
गया।
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