Tuesday 18 July 2017

उत्तर स्मृति जलधि तरंगाः वंस अपान ए टाइम

वंस अपान ए टाइम...
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उस दिन सवाल था कि कौन क्या बनना चाहता है? ज़िन्दगी का प्राथमिक फैसला उन कुछ दो-चार मिनटों में तय करना
था। सब लोग अपने-अपने लक्ष्यों बारे में पहले से सोच-समझकर बैठे हुए थे। किसी को आईआईटी से पढ़कर इंजीनियर बनना था, किसी को आईएएस बनना था, किसी को कुछ बनना था तो किसी को कुछ! मेरा नम्बर आया तो दिमाग में एक ही चीज़ थी। भारत का सबसे बड़ा पद कौन सा होता है? राष्ट्रपति का! तो मुझे राष्ट्रपति बनना है। घर में एक ठहाका गूँज उठा। मेरा निर्णय हास्यास्पद था।

"राष्ट्रपति के लिए कोई परीक्षा नहीं होती", किसी ने कहा।
"तो कैसे बनते हैं राष्ट्रपति?"
"चुनाव होता है उनका!"
"अच्छा! तो हम चुनाव लड़ेंगे!"

माँ इंटर कॉलेज में नागरिक शास्त्र पढ़ाती थीं। उन्होंने राष्ट्रपति बनने का जो गणित समझाया कि एक पल को मन राष्ट्रपति बनने से हट ही गया। लेकिन फिर खुद सिविक्स इंटरमीडिएट की किताब उठाकर विस्तार से राष्ट्रपति चुनावों के बारे में पढ़ने लगा।

1.राष्ट्रपति बनने के लिए व्यक्ति का गैर-राजनीतिक होना ज़रूरी है।
2.उसकी उम्र 35 वर्ष से अधिक होनी चाहिए।
3.किसी क्षेत्र में बड़ा नाम होना चाहिए।

योग्यताओं में घुसने में अभी हमारे लिए लम्बा वक़्त था। पढ़ाई लिखाई चलती रही और इन सबके बीच ध्यान एक ऐसा रास्ता तैयार करने में था जिससे एक फेमस व्यक्ति बना जा सके। इसीलिए मुझे कभी इंजीनियर नहीं बनना था, डॉक्टर नहीं बनना था, मुझे राजनेता बनना था। तभी ही तो फेमस हुआ जा सकता है।
राजनीति में मन लगने लगा। फिर लगा कि यह भी मुश्किल है। इसके लिए बहुत पैसा चाहिए। कुछ ऐसा तलाशना था जो हमसे ठीक से हो पाए। लेखन में रुचि यहीं से जगी। लिखकर भी तो फेमस हुआ जा सकता है न! अब हम लिखेंगे। कक्षा 6 में थे तब! हाइस्कूल आते-आते दिमाग में यह बात पुख़्ता रूप से दर्ज जो गयी कि ज़िन्दगी में जो भी करना है, बड़ा करना है। तय कर लिया था, कि अब साहित्य ही मेरा लक्ष्य होगा। विज्ञान वर्ग से इंटरमीडिएट उत्तीर्ण होकर बीएससी करना दुर्भाग्यपूर्ण फैसला रहा। इन सबके बीच साहित्य जीवित था मुझमें यही मेरी उपलब्धि थी।

खैर! हम राष्ट्रपति की कहानी पर थे। घर में ही नहीं, रिश्तेदारों के बीच भी मेरी हंसी होती थी कि मुझे राष्ट्रपति बनना है। कई लोगों ने मुझे राष्ट्रपति नाम से ही सम्बोधित करना शुरू कर दिया। मित्रों के बीच भी मेरी व्यस्तता को लेकर तानें इसी नाम से गढ़े जाने लगे। राष्ट्रपति से सम्बंधित कोई भी चर्चा होती और सामने हम पड़ जाएं तो एकाध जुमले हमारी ओर उछाल ही दिए जाते।
मेरा सपना मज़ाक बन गया। था भी तो मज़ाक जैसा ही। जब राष्ट्रपति उम्मीदवार तय हुए तो बड़े भाई ने मेरे पास फोन किया कि नामांकन करवाये की नहीं?

पूछा, किसका नामांकन!
तो, राष्ट्रपति का!
फिर हम दोनों हंस दिए। घर आये तो दीदी ने कहा, राष्ट्रपति बनने का ख्वाब सो गया क्या! हमने कहा, "नहीं तो! अभी उमर कहाँ हुयी!" बोलीं, "नहीं, अगर सो गया हो तो हम फिर से जगाएं!" शायद उनके लिए इस मज़ाक में हक़ीक़त की संभावना जीवित हो! शायद उन्हें हमारे इस मजाकिया सपने में कहीं आग दिखाई दे रही हो! शायद उन्हें उम्मीद हो कि रायसीना हिल्स कभी अपना ठिकाना हो ही जाये। किस्मत को कौन जानता है। एक चाय विक्रेता जब 'किस्मतवाला' बना तो सीधे प्रधानमंत्री हो गया तो हमारी किस्मत भी कुछ तो बड़ा करवा ही सकती है।

अब मेरे मन में क्या है, मैं खुद नहीं समझ सकता। राष्ट्रपति-चुनाव को 2007 से बारीकी से देख रहा हूँ और लगातार मेरी इस पद के लिए योग्यता बजाय बढ़ने के घटती जा रही है। एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया जहाँ अब्दुल कलाम योग्यता में एक समर्पित पार्टी कार्यकर्ता प्रतिभा पाटिल से पीछे रह जाते हों, एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया जिसमें राष्ट्रपति पद सत्तारूढ़ पार्टी का सबसे वरिष्ठ नेता जब प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा सका, उसके तबके त्याग का पुरस्कार बन जाता हो, एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया जिसमें अब उम्मीदवार की जाति उसके लिए गणतंत्र के सर्वोच्च पद का आसन तैयार करती हो उसमें अब मेरे लिए सम्भावनाएं धीरे-धीरे खत्म होती लग रही हैं। मैं अब साहित्य स्वान्तः सुखाय के उद्देश्य से लिखता हूँ और अब मुझे न राजनेता बनने का शौक है और न ही फेमस होने की ही इच्छा है।।

उत्तर स्मृति जलधि तरंगाः एकांतजन्य

13 june 2016
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नॉएडा सेक्टर 20, एक मंदिर के ठीक सामने एक छोटा सा पार्क है। बगल में एक कॉलोनी है, तो साफ़ है कि कॉलोनी वालों के लिए ही ये छोटी सी जगह निश्चित की गयी होगी। दिन भर रूम में अकेले पड़े रहकर बोर होने के बाद पाँव अनायास ही इस ओर बढ़े चले आए। आया तो मंदिर देखकर था, लेकिन मंदिर में गया ही नहीं।यहीं आकर बैठा हूँ शाम से। जब बात करने के लिए कोई न हो तो आस पास की हलचल से ही वार्तालाप करना मजबूरी हो जाती है।

यहाँ उस हलचल के नाम पर सिर्फ दो कोनें गुलज़ार हैं। मेरे सामने एक वृत्त की शक्ल में तकरीबन 6-7 लोग ताश खेल रहे हैं, बड़े ही शांतिपूर्ण ढंग से। मेरे पीछे तकरीबन 15-16 बच्चे एक छोटा सा हेलीकॉप्टर उड़ा रहे हैं। उनमें दो किसी संपन्न परिवार के बच्चे हैं। ये हेलीकॉप्टर उन्हीं का है। बाकी उस हेलीकॉप्टर के उड़ने पर उसके नीचे खड़े होकर उसे मुंह बाए देख रहे हैं। बच्चों के परिवार की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा उनके वस्त्र और उनके आचरण और उनकी भाषा भी देखकर साफ़ तौर पर लगाया जा सकता है।

एक के हाथ में रिमोट है, दूसरे का हाथ हेलिपैड बना हुआ है, हेलीकॉप्टर बार बार वहीं से उड़ान भर रहा है। नीचे बाकी के सभी बच्चे कौतूहल से उड़ते हेलीकॉप्टर को देख रहे हैं, खुश हो रहे हैं, उनमें एक वह बच्चा भी शामिल है जिसने चलने की कला शायद 1 महीने पहले ही सीखी होगी, मतलब ढाई या तीन साल का रहा होगा। जाने क्या उम्मीद है उन्हें, हेलीकॉप्टर की तरह आकाश छूने की या फिर हेलीकॉप्टर को एक बार छू लेने की। वैसे उनके मन में हीन भावना भी हो सकती है कि मेरे पास भी यह होना चाहिए। शायद आज उनके घर में रोटी और सब्जी के साथ होने वाले डिनर में इस बात पर विमर्श भी हो, जो उनके पिता की ऊंची और तीखी आवाज से खत्म भी हो जाए।

जो भी हो, लेकिन बच्चों ने भरपूर आनंद लिया। उन दो हेलीकॉप्टर के मालिकों के अलावा भी सारे बच्चों ने। उनमें एक नीली बनियान पहने हुए जो बच्चा था, वह शायद हेलीकॉप्टर को लेकर काफी उत्साहित था। उसके नीचे काफी उछल रहा था, बार बार हेलीकॉप्टर को हवा में ही छूने की कोशिश करता हुआ। फिर अचानक हेलीकॉप्टर मालिक बच्चे ने जो स्वास्थ्य में भी उसका तीन गुना था, उसने उसे डाँट दिया - "बार बार हाथ क्यों लगाता है।" फिर क्या था, नीली बनियान वाले बच्चे ने इस खेल से कुछ भुनभुनाते हुए स्वतः विदाई ले ली।

स्वाभिमान, आत्मप्रतिष्ठा, खुद्दारी- ये भौतिक सुविधाओं या केवल संपन्नता के वातावरण में नहीं फलती फूलती हैं, ये इंसान के लहू की आग में पकती हैं, जिससे इंसान की इंसानियत, व्यक्ति का व्यक्तित्व सोने जैसा दमकता है।

उत्तर स्मृति जलधि तरंगाः एकांतबंध

May 21 · Noida ·
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थके हारे,
तीसरी मंजिल से जब नीचे उतरते हैं,
तब काटती है भागती दुनिया।
यही मन चाहता है,
अंस पर लटका ये काला बैग लेकर
सतत
चलता रहूँ निर्लक्ष्य होकर,
कदम हाथी के जैसे मन्द हों,
ज़रूरत-कामना-दायित्व के बाज़ार मन में
हमेशा के लिए ही बन्द हों।
जो ठहरूं तो,
न सम्मुख हो कभी मेरे,
कहीं से भी कभी से भी,
मुझे पहचानने वाला।
मेरे मन का उलझता तार रख दूं मैं
किनारे कुछ समय।
निरन्तर गति,
अनन्तर राह,
छोटे डग
न कोई चाह।
न कोई यति
कि ऐसी गति
नियति में हो तो मिल जाए।
मेरी बिलकुल भी इच्छा ही नहीं होती
कि ऑफिस के
बड़े ही भव्य बिल्डिंग से
निकलते राह से चलता चला जाऊं
जहाँ कुछ दूर है वो घर,
कि जिसमें है वो कमरा एक बिस्तर
एक तकिया, एक टीवी, एक पँखा
एक एसी से सजा,
जहाँ पकता रहा होगा
कभी खाना,
मगर अब पक रहा हूँ मैं।

उत्तर स्मृति जलधि तरंगाः रुखसत-ए-बेर सराय

छूटते पदचिन्हों के साथ एक दौर इतिहास होता जा रहा है...👣
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16/04/2017,मंगलवार,बेर सराय

बेर सराय में मेरे रहने के ढाई ठिकाने रहे।पहला Samar का आवास दूसरा Abhishek का रूम और आधा स्वयं मेरा अपना कमरा।मैं अपने रूम पर कम ही पाया जाता था।

दिन भर आईआईएमसी से लेकर जेएनयू तक भटकते रहने के बाद रात में यहां भी एक संसद लगती।हंसी-ठहाके,गीत-ग़ज़ल-कविता,राजनीति-समाजनीति विमर्श हर तरह के रंगों से इस महफ़िल की रंगोली बनती थी।लगभग साल भर चली इस प्रक्रिया में एक दूसरे के बारे में बात करना,उसके उद्देश्यों के बारे में पूछना उसका इतिहास जानना,आने वाले दिनों के लिए क्या योजनाएं हैं,क्या करना चाहते हैं इन सभी चीजों से सम्बंधित बातें करना इन रतजगों का विषय हुआ करती थीं।तमाम तात्कालिक राजनैतिक और सामाजिक मुद्दे सुलझते थे।खूब बातें होती थीं।चूंकि हममें से अधिकांश लोग रचनाकार थे तो कभी कभार रात 2 बजे ही कवि सम्मेलन भी आयोजित हो जाया करता था। Anurag भाई सर्वाधिक मांग वाले कवि थे।इसके बाद आर्य भारत की आग उगलती कविताएं सुनी जाती थीं।

आज हमने भी सारा सामान समेट लिया है इन सभी यादों के साथ।बेर सराय में रुकने की अब कोई सम्भावना नहीं है।यहां रुकने का अब कोई मतलब और अधिकार भी नहीं है।जीवन के सर्वाधिक अविस्मरणीय क्षणों का इतिहास समेटे इस शानदार वातावरण में रहने के कारण भी तो खत्म होते जा रहे हैं।कर्मभूमि भी अब नॉएडा सेक्टर 10 की दौड़ती भागती ज़िन्दगियों के बीचोबीच मिल गयी है।वहां कोई ठहराव नहीं होगा।वहाँ कहीं एकांत नहीं होगा,वहां बेर सराय की तरह स्वतंत्रता रात और दिन की समयसीमा से आज़ाद नहीं होगी।वहां रतजगे न हो पाएंगे शायद!वहां महफिलें न लग पाएंगी शायद।
ये सारी चीज़ें मन को दुखी कर रही हैं।मकान नंबर 14 के छठवीं मन्ज़िल के रूम नम्बर 604 में लगने वाली महफ़िल सबसे ज्यादा याद आने वाली है। Jitendra उर्फ़ जीतू की चाय और शिकंजी शायद ही भूल पाएं और वो हमारे अपने 'संसद' की सीढ़ियां जिन पर बैठकर आईआईएमसी बैडमिंटन कोर्ट की थकान उतारा करते थे,जिन पर अपनी समस्त निराशाओं परेशानियों को बगल में बिठाकर उनसे बात करने की कोशिश करते थे वे सब अब पीछे छूट रही हैं।एक बार फिर से किसी रूम नम्बर 604 के कमरे में कवियों का जमघट हो,इसकी संभावना भी अब हमसे हाथ छुड़ा रही है।

वक़्त की धारा ने सब कुछ तितर-बितर कर दिया है। Prashant मातुल और Vivek नॉएडा में तो हैं लेकिन फिर भी दूर हैं।ये दूरी सिर्फ किलोमीटर में नहीं है अब,इस दूरी के साथ समय की विमा भी जुड़ गई है।अनुराग और अभिषेक फिलहाल तो यहीं हैं लेकिन आगे इनका भी ठिकाना वसंतकुंज हो जाय शायद। Aman Brar चंडीगढ़ चला गया, Aman और Gaurav का कोई भरोसा नहीं कहाँ रहे। Neeraj राजस्थान के प्रवास पर है। आर्य भारत तो गांधी फ़ेलोशिप वाले हो गए।हाँ,समरवा तो कहीं भी रहे,उससे दूरी महसूस नहीं होगी,उसका पीछा तो ज़िन्दगी भर नहीं छोड़ना है।अब जा रहे हैं तो हर रोज की तरह अब कोई उम्मीद नहीं है कि रात को तो सब मिलेंगे ही,और सब लोग न सही अनुराग,अभिषेक,समर, Rohin तो ज़रूर।अब वो उम्मीद भी नहीं रहेगी।पता नहीं कितना याद आओगे तुम सब!अभी तो कोई अंदाज़ा नहीं।यहां रहते हुए खाली और अकेले रहना लगभग भूल ही गये थे।

ये बेर सराय की जमघट थी।अधिकांश ने अपने ठिकाने ढूंढ लिए और छोड़ दिया 2016-17 के कालखण्ड के उस बेर सराय को अकेला,जो हम सबकी हर महफ़िल का साझेदार हुआ करता था।सब कुछ अब पीछे छूट रहा है।छूटते पदचिन्हों के साथ एक दौर इतिहास होता जा रहा है।ऐसा लग रहा है एक संस्कृति से अलगाव हो रहा है।एक सभ्यता पीछे छूट रही है।भविष्य भी तो रोंआ गिराए ही हमारा स्वागत कर रहा है।

ख़ैर,अब इतने बड़े त्याग की बुनियाद पर कुछ अच्छा ही होगा,यही उम्मीद है।सब खुश रहें,सब सफल होवें,सबका भला हो।
अलविदा बेर सराय

उत्तर स्मृति जलधि तरंगा: नवसोपानम्

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे




एक नए अनुभव की दहलीज़ पर कदम है आज!नयी पारी भी कह सकते हैं।स्मृतियां आज उन सारे दिनों की तस्वीरों पर रौशनी डाल रही हैं,जब जब आज ही की परिणति को लक्ष्य बनाकर हमारे निर्माण को धार दिया जा रहा था।शिक्षा का सम्पूर्ण उद्देश्य एक अच्छी नौकरी की संभावना की सीमा पार नहीं कर पाता था।

नौकरी तो है नहीं यह,कुछ उसी जैसा है।अब अच्छी है या बुरी है,नहीं पता!अलग-अलग मापदंडों के अलग-अलग फैसले हैं।

अब हर रोज़ ऑफिस जाना होगा।यहां शायद बहाने नहीं चलेंगे।10 बजे का मतलब 10 बजे होगा।अभी तक तो खासकर हमारे लिए 10 बजे मतलब 10 बजे तो बिलकुल नहीं होता था,वह कभी 11 बजे होता,कभी 12 बजे होता तो कभी कभी मूड ठीक-ठाक रहता तो 9 बजे हो जाता।लेकिन अब ऐसा नहीं है।अब 'बॉसवाद' का अनुगामी बनना ही पड़ेगा।अब तक भले किसी भी 'वाद' के विवाद में न पड़े हों,अब तो पड़ना ही पड़ेगा।

पहला अनुभव होगा,जब किसी की स्टाइल शीट हमारे अपने हर अंदाज़ को संचालित करेगी,हो सकता है ऐसा न भी हो,लेकिन लोगों का तो यही मानना है।ख़ैर जो भी हो,जाकर ही तो पता लगेगा कि क्या होना है।

इलाहबाद में था,तब भइया टाइम्स ऑफ़ इंडिया मंगाते थे।हमारी ज़िद थी कि हम पढ़ेंगे तो हिंदी अख़बार, अंग्रेजी तो बिलकुल नहीं।इसलिए हम कॉलेज जाते वक्त 'जनसत्ता' खरीद लेते थे।कई लोगों का सुझाव भी था कि जनसत्ता का एडिटोरियल जरूर पढ़ना चाहिए,इसलिए भी जनसत्ता ख़ास थी।अच्छा!हर जगह मिलता भी नहीं था।यूनिवर्सिटी रोड,abvp कार्यालय के नीचे मिल जाता,वहीं ले लेते थे।तब सोचा भी नहीं था कि आज जो अखबार इतनी शिद्दत से खरीद पढ़ रहे हैं,एक दिन उसी अखबार का कार्यालय अपना ऑफिस होगा।

अच्छा!लोग भी कह रहे हैं।जितने लोगों ने हमको थोड़ा-बहुत(जितना हम लिखते हैं)पढ़ा है,वो यही कहते हैं कि तुम्हारा लेखन था भी जनसत्ता लायक।अब ये तारीफ होती थी या कुछ और,पता नहीं।रोहिन का भी कहना था कि 'जनसत्ता तुम्हारी हिंदी बचा लेगा।'जनसत्ता की जो हिंदी है वो थोड़ी सी क्लिष्ट साहित्यिक हिंदी है।इसलिए भी उसकी भाषा थोड़ी विशिष्ट है,अलग है।एक मानक के तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में उसकी प्रतिष्ठा है।'जनसत्ता की हिंदी' एक मानक है,विशिष्ट है,अलग है।अगर ऐसा नहीं होता तो लल्लनटॉप ऑनलाइन के इंटरव्यू में शताक्षी की लिखी हिंदी पर टिप्पणी करते हुए सौरभ द्विवेदी ये न कहते कि 'तुम्हारी हिंदी तो जनसत्ता टाइप है।'और फिर उन तीन चयनित लोगों में शामिल भी कर लेते जिन्हें फाइनल इंटरव्यू देना है।

भाषा जो भी हो,जनसत्ता प्रतिष्ठित है एक ऐसे पत्रकारीय विकल्प के रूप में जिसमें वस्तुनिष्ठता,निष्पक्षता,विश्वसनीयता और पत्रकारिता अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में है।एक ब्रांड भी है,इसलिए मेरे अपने दोस्तों की नज़र में मैं सही जगह पर हूँ।

अब वहां जाकर मुझे क्या करना है,नहीं मालूम।टंकण करना है,अनुवाद करना है,न्यूज़ लिखना है,आर्टिकल लिखना है,रिपोर्टिंग करनी है!!पता नहीं।लेकिन कल इंडियन एक्सप्रेस अपार्टमेंट की इस बिल्डिंग में पाँव रखते ही सामाजिक सरोकार,सामाजिक मुद्दे और सारा समाज मेरे प्रति अपना नजरिया बदल देंगे।उस ऊँची बिल्डिंग के किसी कमरे की किसी कुर्सी पर बैठकर हम जो भी करें, सड़क को,गली को,मोहल्ले को,जिले को,प्रदेश को,देश को मुझसे 'कलम से क्रांति' करने की उम्मीद तो जरूरे होगी।देखना होगा कि इस उम्मीद की ज़िन्दगी के लिए अवसर के कितने ख़ुराक़ मुझे नसीब होते हैं।


आदमी जब बुज़ुर्गीयत की ओर बढ़ता है तो उसको नसीहत मिलती है कि 'उमर हो गयी,अब भगवद्गीता का पाठ करो।'जब कोई काम नहीं तब गीता पढ़ो ताकि मोक्ष हो जाए।ज्ञान-कर्म-संन्यास योग की शिक्षा का अनुपम संग्रह यह ग्रन्थ जीवन के उस किनारे पर पढ़ना जब ज्ञान-कर्म का दौर रुखसत हो चुका हो,सही नहीं लगता।गीता पढ़ने का सही समय तब है जब आप जीवन के समरांगण में उतर रहे हों।इसकी सही जरूरत तभी है।इसलिए आज यू ट्यूब पर आधा घण्टा कृष्णरूपी नितीश भारद्वाज से गीता सुने हैं।जो चीजें समझ आयी उन्हें साझा कर रहे हैं।

कृष्ण कहते हैं कि 'सत्पुरुष अपने अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करते।कर्म करने के अधिकारी मनुष्यों को कर्म के फल में आसक्त नहीं होना चाहिए।यदि आप विजय से मोहित नहीं होते हैं तो पराजय से घबराएंगे भी नहीं।और वैसे भी बाणों के संधान पर आपका अधिकार हो सकता है,आपकी एकाग्रता-ध्यान पर आपका अधिकार हो सकता है लेकिन उस मृग पर आपका कोई अधिकार नहीं जिस पर आप बाणों का संधान किये हुए हैं।इसलिए कर्मफल की इच्छा मत रखिये।कर्मफल की इच्छा व्यक्ति के गले में बंधा वो पत्थर है जो उसे उसके तहों से उठने नहीं देती।वो व्यक्ति को समाज से काटकर अलग कर देती है और उसे व्यक्तिगत लाभ और व्यक्तिगत हानि के दलदल में धकेल देती है।'

कृष्ण बताते हैं कि 'व्यक्तिगत लाभ से पाप की गली निकलती है।समाज आपसे नहीं है,आप समाज से हैं।इसलिए आप लोकसंग्रह और लोककल्याण को ही अपना प्रथम कर्तव्य मानिए,क्योंकि जो समाज के लिए कल्याणकारी होगा वही आपके लिए कल्याणकारी होगा।'

हालाँकि ये श्रीकृष्ण द्वापर में अर्जुन को संबोधित करते हुए कह रहे हैं।आज के समय में यह कितना प्रासंगिक है,कह नहीं सकते।लेकिन फिलहाल कर्तव्यों और कर्मों के इस दौर में अच्छे-बुरे की पहचान के लिए इससे बेहतर मानक और कोई उपलब्ध भी तो  नहीं है।इसलिए इसे मानना सिर्फ मजबूरी नहीं,सिर्फ ज़रुरत नहीं बल्कि एक प्रयोग एक प्रैक्टिकल भी है जो इस दृष्टान्त को या तो पुष्ट करेगा या फिर नष्ट करेगा।

ख़ैर!नयी पारी है,नये अनुभव होंगे।उत्सुकता,उत्साह और उम्मीद चरम पर हैं।
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प्रथम दिवस

ऑफिस तो अच्छा था।इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग के तीसरे फ्लोर पर है जनसत्ता एडिटोरियल का ऑफिस।बड़ा सा हॉल है,जिसमे अलग-अलग चैम्बर हैं,अलग-अलग डेस्क हैं।कोई कार्नर इंडियन एक्सप्रेस का है,कोई फाइनेंसियल एक्सप्रेस का,कोई जनसत्ता का तो कोई इंडियन एक्सप्रेस वुमन पोर्टल का।सब लोग अपने-अपने सिस्टम पर न्यूज़ इकट्ठा करने में लगे हुए हैं।मेरी ईमेल आई डी पर 3-4 लिंक्स आये थे।अंग्रेजी में थे,उनका हिन्दीकरण करके स्टोरी बनानी थी।

पहले दिन करीब 5 न्यूज़ स्टोरी ही बन पाई हमसे।काम कुछ यूं है कि बस पहले ही दिन मन ऊब गया है।लगता है हमसे न हो पायेगा अब कुछ।पहले कुछ घण्टे तो ऐसा लग रहा था जैसे क्लास में हों और क्लास वर्क मिला हुआ है,उसे ही करने की कोशिश कर रहे हैं।लेकिन यह क्लास तो थी नहीं।यह तो ऑफिस था।यहां सबकुछ हमारी मर्ज़ी से तो होना नहीं था।एक अदृश्य बन्धन था,जिससे बंधे हुए थे।ऊपर से एक सीनियर भाई साहब ने और मस्ती-वस्ती प्रतिबंधित कर रखा था।उनका कहना था जब तक इंटर्नशिप है,मेहनत करो,खाली मत बैठो।एक बार परमानेंट होने के बाद चाहे जो करो।
बड़ी मुश्किल थी।आदत छूट गयी है लगातार मेहनत करते रहने की,खाली न बैठने की।कैसे होगा ये सब!


क्लास रूम बहुत याद आ रहा था।एक दिन पुरानी ज़िन्दगी बिछड़ी हुयी महसूस हो रही थी।लग रहा था कितनी जल्दी बड़े हो गए।आज तक बड़े होने का एहसास नहीं था।बड़ा लड़का हूँ परिवार का,लेकिन कोई ज़िम्मेदारियों का भार नहीं था।स्वच्छन्द था,मनमौजी।अब लग रहा है जैसे इस पर बड़ा प्रहार होने वाला है।कल तक उत्साहित थे,आशान्वित थे।आज डरे हुए हैं,आशंकित हैं।क्या सच में जीवन में कर्मों का संग्राम छिड़ गया है,क्या सच में अब गाण्डीव पकड़ना ही पड़ेगा!क्या सच में...लड़ना ही पड़ेगा।

जीवन और मृत्यु के बीच सिर्फ एक दौड़ भर का भी फासला हो सकता है!

ग ली में घुसते ही लोग बाइक पर बैठकर, पैदल ही या अन्य वाहनों से तेजी से भागे जा रहे थे। मामला क्या था अभी समझ नहीं आ रहा था। हम गली में अपने...